Tuesday, October 30, 2012

साहित्य, सिनेमा और समाज


साहित्य और सिनेमा किसी भी समाज की दशा और दिशा का सूचक होते है उस दौर में सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला साहित्य और देखा जाने वाला सिनेमा आम जनमानस की सोच का परिचायक होता है प्रचलित रचनाओं के विषय उस दौर के सामजिक हालातों का आइना होते हैं उदाहरण के तौर पर 60 के दशक में सिनेमाई परदे पर गरीब किसान और बेदर्द-बेरहम साहूकार से जुडी कहानियों का बोलबाला था वही 80-90 के दशक में ये तस्वीर बदल गयी और इस दौर में बेरोज़गारी और भुखमरी सिल्वर स्क्रीन पर छाई रही सदी का अंत आते-आते बड़ा पर्दा खुशनुमा पारिवारिक कहानियों से अटा पड़ा था

पर आज का दौर अलग है कला पर बाज़ार हावी है ये वो दौर है जब बाज़ार की मांग उत्पाद का स्वरुप तय करती है पर पहले ऐसा न था पहले की रचनाएँ उद्देश्यात्मक हुआ करती थी हर एक रचना के पीछे रचियता की सोच, एक विचार हुआ करता था उदाहरण के तौर पर पिछली सदी के मध्य में जब स्वाधीनता  संग्राम अपने चरम पर था तब साहित्य एक उत्प्रेरक की भांति कार्य कर रहा था वीर रस की कवितायें नौजवानों के खून में एक नया जोश भर देती थी वे इस यज्ञ में स्वयं की आहुति देने के लिए जरा भी नहीं सकुचाते थे

परन्तु आज व्यावसायीकरण के इस दौर में कला कलाकार की कल्पनाशीलता का प्रतिबिम्ब नहीं अपितु उपभोक्ताओं की आकांक्षाओं को तृप्त करने का साधन मात्र बनकर रह गयी है लेखक की कलम से आजकल वही शब्द निकलते है जो इस बाज़ार में बिकाऊ होते है ऐसा साहित्य समाज को दिशा नहीं दे सकता ये वो पुस्तकें नहीं जिन्हें लकड़ी की अलमारी में सलीके से सजाया जाता है ये तो वे किताबें हैं जिन्हें गद्दे या तकिये के नीचे छुपाया जाता है

सिनेमा की स्थिति तो अधिक दयनीय है संदेशात्मक प्रायोगिक सिनेमा को "कला" फिल्म का तमगा लगा नकार दिया जाता है ऐसी कहानियों को निर्माता से लेकर वितरक तक दूर से ही प्रणाम करते हैं  इस तरह के सिनेमा  को किसी फिल्म महोत्सव में फिल्म समीक्षकों की वाहवाही और एक-दो पुरस्कार तो मिल जाते हैं पर सिनेमाघरों में दर्शकों की भीड़ नहीं मिलती वही दूसरी ओर दोयम दर्जे की फूहड़ मसाला फ़िल्में आय के नित नए रिकॉर्ड बनाती है

हालात बेहद चिंताजनक है समाज को सही दिशा की पहचान कराने वाले साहित्य और सिनेमा आज स्वयं दिशाहीन हो चुके हैं जैसे गीता और कुरान में लिखी हर एक पंक्ति आज हमारे लिए निर्विवाद रूप से सत्य है वैसे ही यदि आने वाली पीढीयाँ आज की कृतियों को आधार बना सत्य की परिभाषा गढ़ने लगी तो अंजाम भयावह तथा कल्पना से परे होगा

सोचिये विचारिये और समझिये 


Wednesday, October 10, 2012

"दामाद चालीसा"



काश हम भी उनके "दामाद" हो पाते..



देख ज़माने को अपनी किस्मत पर इतराते

शहर भर में अपना रौब जमाते,

काश हम भी उनके "दामाद" हो पाते..



मंत्री से संत्री सब हमारे आगे सर झुकाते,

हाथों में "Butter" लिए, अफसर लाइन लगाते,

काश हम भी उनके "दामाद" हो पाते..



बिना "checking" हम दुनिया घूम आते,

सरकारी खर्चे पर रोज़ मौज मनाते,

काश हम भी उनके "दामाद" हो पाते..



हर बिमारी का इलाज अमरीका में करवाते,

चिंता नहीं "बिल" की, वो तो सरकारी खाते से जाते,

काश हम भी उनके "दामाद" हो पाते..



बिना "Interest" करोड़ों के लोन मिल जाते,

"Corporates" हमसे ऐसी यारी निभाते,

काश हम भी उनके "दामाद" हो पाते..



करोड़ों के "flat" लाखों में मिल जाते,

किसानों की जमीन पर बंगले बनवाते,

काश हम भी उनके "दामाद" हो पाते..



लाखों से करोड़ों हम यूँ ही बनाते,

धन-दौलत के अम्बार लगाते,

काश हम भी उनके "दामाद" हो पाते..



काश, काश काश हम भी उनके दामाद हो पाते ....



आनंद भाटिया