Sunday, December 19, 2010

गर्त


हमारी स्मरणशक्ति बहुत कमजोर है

दंतेवाड़ा नरसंहार और नक्सलवादियों को शायद हम भुला चुके है, बिहार, झारखंड, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ आदि के नक्सल प्रभावित क्षेत्रों की विकास परियोजनाएं, चुनावी मंचों की घोषणा बन कर रह गयी..

देश भर में किसानों की आत्महत्याओं की ख़बरें अब प्राइम टाइम का हिस्सा नहीं बन पाती...

राष्ट्रमंडल खेलों और आदर्श सोसायटी पर इस्तीफों की खानापूर्ति की जा चुकी है, अरबों रुपये के इन घोटालों के बावजूद अभी तक कलमाड़ी की कुर्सी जस की तस है ...

चीन की बढती घुसबैठ के किस्सों को ठंदे बस्ते में डाला जा चूका है, शायद हमने वैश्विक राजनीति में उसके बड़ते रुतबे के आगे सर झुका दिया है...

अफजल गुरु को सिर्फ संसद भवन पर हमले की बरसी के दिन याद किया जाता है, कसाब का हाल भी आजकल कुछ ऐसा ही है ..

26 /11 के हमले में जान गवानें वाले लोगो पर अब वृत्तचित्र नहीं बना करते ....शहीदों की मौत पर राजनीति करने वाले नेताओं के बयानों को ज्यादा तवज्जो मिलती है ..

रुचिका केस में तो CBI भी दिलचस्पी नहीं ले रही, आम लोगों से उम्मीद करना तो बेमानी होगा

2G आजकल फ्लेवर में है राजा को छोड़, राडिया निशाने पर है, .. संसद का शीतकालीन सत्र इसकी भेंट चढ़ गया, जनता की गाडी कमाई के करोड़ो स्वाहा हो गए पर हमने उफ़ तक नहीं किया

दुःख होता है यह सब देखकर, किस ओर जा रहे है हम .....??
जिन घटनाओ पर हमारा खून खोल उठाना चाहिए था वे हमारे लिए आम होती जा रही है... घोटाले और भ्रष्टाचार अब हमें झकझोरते नहीं है , बम धमाकों की ख़बरें अब हमारा ध्यान नहीं खींच पाती.. हर दूसरे दिन होने वाली सामूहिक बलात्कार की घटनाएं हमें घिनौनी नहीं लगती
ऐसा इसलिए हुआ क्योंकि अब हम इन सबके अभ्यस्त हो गए है, ह्रदय के किसी कोने में विरोध की चिंगारी स्वार्थ की कालिख में दब कर रह गयी है देश और समाज से परे हमारी प्राथमिकताएं मैं और मेरा परिवार तक सीमित होकर रह गयी है

कुल मिलाकर मुन्नी और शीला के चक्रव्यूह में फंसा ये समाज एक गर्त में गिरने की तैयारी कर रहा हैं

Thursday, November 18, 2010

अर्थ

सब भारतीय एक ही सपने के साथ बड़े होते हैं, अच्छी शिक्षा और फिर एक मोटी कमाई के साथ ऊंचे ओहदे वाली नौकरी, और अनजाने में ही सही पर यही हमारे जीवन का अंतिम लक्ष्य हो जाता है

मोहल्ले का हर दूसरा पिता अपने बच्चों को डॉक्टर या इंजिनीयर बनाना चाहता है और शुरू हो जाता है बड़े कॉलेजों में दाखिला पाने की जुगत का खेल ....स्कूल तथा कॉलेजों में विषयों का चुनाव व्यक्तिगत रूचि पर आधारित नहीं होता अपितु नौकरियों के सर्वाधिक अवसर उपलब्ध करने वाला विषय तथा क्षेत्र सभी की पहली पसंद बन जाता है केम्पस में हर ओर गधों का मेला सा नज़र आता है, जो अपने कंधो पर समाज की आकांक्षाओं का बोझ ढो रहे है जमाने के साथ दौड़ने की होड़ में अन्दर कहीं किसी कोने में छिपा कलाकार बहुत पीछे छूट जाता है,

कई बेनाम कवियों की रचनाएं विज्ञान की कॉपी के अंतिम प्रष्टों में दम तोड़ देती है गणित के समीकरणों से अनजान चित्रकार कक्षा की खिड़की से बाहर दूर गगन में सफ़ेद रुई के गुच्छों में कल्पना के रंग भरते रह जाते हैं, ट्यूशन जाते हुए सड़क के किनारे पड़े पेप्सी, कोक के टीन के डिब्बे फुटबाल और क्रिकेट का शौक पूरा करते है शयनकक्ष की दीवार पर टंगा आइना, कुछ मायूस अभिनेताओं के अभिनय का साक्षी बनता है अकाउंट्स की किताबों से दुश्मनी रखने वाले गायकों के सुर गुसलखाने की चार दीवारी में ही गूंजते है अभियांत्रिकी छात्रावास की छत पर समाज बदलने की बातें करने वाले क्रांतिकारी लेखकों की पंक्तिया विश्विद्यालय की वार्षिक पत्रिका तक सिमट कर रह जाती है

कौन है इन सब के लिए जिम्मेवार ?? क्या वो पिता जो रोज़ बसों में धक्के खाता, अपने बच्चों के अच्छे भविष्य का ख्वाब देखते हुए दफ्तर पहुँच जाता है या वो माँ जो दो साड़ियों में अपना जीवन बिना किसी अफ़सोस के बिता देती है ...????

दोष देना है तो दीजिये उस समाज को, उस व्यवस्था को जहाँ आँखों पर मोटा चश्मा लगाये हाथ में बड़ी सी किताब लिए एक बच्चा सबकी आँखों का तारा होता है और वही घर के सामने के मैदान में छक्के-चोक्के लगाते दूसरे को सभी तिरस्कृत नज़रों से देखते हैं

याद रखिये सृष्टि के रचियता ने प्रत्येक मनुष्य को भिन्न-भिन्न क्षमताएं तथा योग्यताएं दी है किसी के गले को सुर दिए तो किसी के हाथों में तस्वीरें उकेरने का हुनर, कुछ में अंको तथा समीकरणों से जूझने का जूनून दिया तो कुछ न्यूटन और आइन्स्टीन के नियमो से खेलने की काबलियत...

अभी भी समय है मत रोकिये उनकी कल्पनाओं की उड़ान को, रंगने दो उन्हें अपने ख़्वाबों को... तभी मिलेगा उनके अस्तित्व को एक "अर्थ"

Sunday, November 14, 2010

एक है "राजा"


भारतीय राजनीति के इतिहास में ऐसे कई मौके आये है जब गठबंधन सरकार के मुखिया को सहयोगी दलों का बेजा दबाव झेलना पड़ा हो l कभी सरकारी नीतियों को लेकर, तो कभी मंत्रिमंडल में संख्या की खींचतान, घर के इन वीभिषणों के दिए घावों ने लगभग-लगभग हर गठबंधन सरकार को लहू लुहान किया है
आज एक बार फिर सत्ता के गलियारों में राजनीति गर्म है, सरकार जनता और विपक्षी दलों के निशाने पर है l मुद्दा भी कोई ऐसा वैसा नहीं, सरकार के ही एक मंत्री ने सभी नियम-कायदों को ताक पर रखकर राष्ट्रीय संपत्ति को निजी कम्पनीयों को ओने-पाने दामों में बेचकर देश को 176000 करोड़ का चुना लगाया है

आधुनिक भारत के इतिहास में सबसे बड़ा घोटाला और सरकार विवश है अपने ही एक मंत्री के खिलाफ कार्यवाही करने को, मंत्री महोदय के परिचय के साथ वजह खुद ब खुद साफ़ हो जाती है केंद्र सरकार में दूरसंचार विभाग की बागडोर संभालने वाले DMK के इस युवा मंत्री का नाम है "ए राजा", DMK प्रमुख करूणानिधि के विश्वस्त माने जाने वाले "राजा" एक दलित नेता तो है ही साथ ही उनके लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाते है क्योंकि उन्होंने ही उनके परिवार को आतंरिक कलह से अब तक दूर रखा है l दलित वोट बैंक राजा से खटास करूणानिधि को न सिर्फ राजनीतिक तौर पर भारी पड़ सकती है बल्कि यह उनके परिवार में टूट की वजह भी बन सकती है
जहाँ तक कांग्रेस का सवाल है, राजा पर कोई भी कड़ा फैसला सरकार के अस्तित्व को खतरे में डाल सकता है और पहले से ही राष्ट्रमंडल खेलों और आदर्श सोसाइटी जैसे बड़े घोटालों के दलदल में फसीं यह पार्टी अभी मध्यावधि चुनावों का खतरा मोल नहीं ले सकती .. जयललिता के समर्थन प्रस्ताव ने राष्ट्रीय नेतृत्व को थोड़ी राहत तो जरूर दी होगी पर यह सब इतना आसान नहीं होगा ..

छोड़िए इन सब बातों को यह सब तो आप को किसी समाचार चैनल के 15 मिनट के बुलेटिन में मिल जाएँगी पर क्या आपने यह जानने की कोशिश करी है की क्यों विवश हो जाती है सरकारें एक नेता के सामने ? क्यों झुक जाती है वे उनकी नाजायज़ मांगो के सामने और रख देती है राष्ट्रीय हितों को ताक़ पर ?? उलझ गए आप, कुछ समझ नहीं आ रहा, उत्तर साफ़ है ये सब होता है आपकी वजह से, हम सब की वजह से, हम बनाते है ऐसे लोगों को शक्तिशाली हमारा स्वार्थ देता है उनको ताकत क्योंकि हम चाहते है अपनी जाति के लिए सरकारी नौकरियों में आरक्षण, सरकारी महकमे में उनकी सिफारिश, पद्दोनात्ति के लिए उनका हाथ, सरकारी ठेके पाने के लिए उनकी दखलंदाजी और सबसे बड़ी वजह है धर्म तथा जाति आधारित हमारी संकीर्ण मानसिकता और जनता के नौकर जल्द ही बन जाते है जनता के "राजा"

ऐसे "राजा" जन्म लेते रहे हैं और लेते रहेंगे जब तक हमारे जैसे लोग भ्रष्टाचार का हिस्सा बनते रहेंगे और अपनी जिम्मेवारी से मुहं फेरकर दफ्तरों, नाई की दुकानों और पान के खोकों पर नेताओ को दोष देते रहेंगे