Thursday, October 31, 2013

गेंदबाज़ी कि मौत


कुछ वक़्त पहले टीवी पर एक नामचीन सीमेंट कंपनी के विज्ञापन आता था जिसमें एक लड़की नन्हे मुन्ने से कपड़ो में समंदर से निकलती थी और पीछे से आवाज़ आती थी "विश्वास है इसमें कुछ ख़ास है।" आज तक समझ नहीं आया कि वे किसकी बात कर रहे थे, लड़की कि या सीमेंट की। शायद advt एजेंसी वालों को लगा होगा कि शेविंग क्रीम से लेकर मर्दाना जाँघिया तक जब स्त्री चेहरे दिखा कर बिक रहे है तो शायद यह भी बिक जायेगा। दोष उनका नहीं है, हर सोच पर बाज़ार हावी है। व्यावसायीकरण के इस दौर में बिक्री बढ़ाने के लिए कोई भी हथकंडा जायज है। 
कुछ यही हाल क्रिकेट का हो गया है। टेस्ट मैच तो पहले ही बमुश्किल कोई देखता था अब ट्वेंटी ट्वेंटी के आने के बाद एकदिवसीय के लिए भी दर्शक जुटा पाना मुश्किल होता जा रहा है। ऐसे में इस तरह के नियम बनाये जा रहे है कि चौके छक्कों कि बरसात हो और खेल में लोगो का interest बना रहे। हर छोर से अलग अलग गेंद, सामान्य ओवर्स में भी सिर्फ चार खिलाड़ियों को दायरे के बाहर खड़ा कर सकने कि बाध्यता और ऊपर से बैटिंग के लिए मददगार पिच। यह सब गेंदबाज़ो के लिए एक दुःस्वप्न कि तरह है। पहले ही पिच से कोई उम्मीद नहीं ऊपर से भारी बल्लो से लग कर गेंद सीधा बाउंड्री का मुंह देखती है, ऐसे में गेंदबाज़ बेबस से नज़र आते है। मुल्क भर में दुश्मन कि तरह देखे जाते है सो अलग। 
पहले ही गली मोहल्ले का कोई लड़का गेंदबाज़ नहीं बनाना चाहता हर किसी को चौक्के छक्के जमाने कि ख्वाहिश रहती है ऊपर से खेल पर बाज़ार इसी तरह हावी रहा और उसकी मूल भावना के साथ यूँ ही खिलवाड़ किया जाता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब कपिल देव और शेन वार्न जैसे नाम सुन लोग आश्चर्य से भर जाया करेंगे और गेंदबाज़ी कि कला का अंत हो जायेगा। 


किसके हैं सरदार पटेल ?

उन्नाव के एक साधू ने जब सपने में 1000 टन सोना देखा तो वहाँ पुरातन विभाग कि टीम के साथ उस खजाने पर अपना हक़ जतलाने वाले कई तथाकथित वंशज भी पहुँच गए। कोई खुद को राजा का वंशज बतलाने लगा तो कोई स्वयं को सेनापति के खानदान कि पैदाइश। जहाँ राज्य सरकार पूरे के पूरे सोने को अपना बताया तो वहीं गाँव वालों ने खजाने में अपना हिस्सा मांगने में देर ना लगायी। Airport से लेकर यूनिवर्सिटी तक कि मांग हो गयी। खुदाई ख़त्म हो गयी और सबको मिला बाबा जी का ठुल्लु। 
आजकल यही हाल सरदार वल्लभ भाई पटेल और जय प्रकाश नारायण का है। एक तरफ जहां कांग्रेसी सरदार पटेल और नितीश JP पर अपना copyright बता रहे है, वहीं दूसरी तरफ Narendra Modi ने बड़ी चतुराई से लोह पुरुष और जय प्रकाश को कांग्रेस और JDU कि झोली से चुरा अपना ब्रांड एम्बेसडर बना लिया। कांग्रेसी बौखला गए है, नितीश का पारा चढ़ा हुआ है पर कुछ भी कहिये आखिरकार इस मुल्क को नेहरू गांधी परिवार के अलावा भी किसी और के बलिदान कि याद आ ही गयी। 
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Thursday, October 24, 2013

Sharad Power

एक ज़माना था जब आलू और प्याज गरीबी रेखा के नीचे आते थे। मिडिल क्लास भिन्डी और हाई क्लास मटर तो इनकी तरफ नज़र उठाकर भी नहीं देखते थे। पर मियाँ वक़्त हमेशा एक सा नहीं रहता। एक रोज़ प्याज की "Sharad Power" लाटरी लग गयी और देखते ही देखते कल का BPL प्याज भी आज fuji apple की बराबरी कर रहा है। आजकल तो Mercedes में आता जाता है। सिर्फ बड़े बंगले वालों के यहाँ ही उठता बैठता है। छोटे गरीबों के तो मुंह भी नहीं लगता। अब तो दर्शन भी दुर्लभ है श्रीमान के। बड़े बड़े लोग बड़ी बड़ी बातें। 

ऐसा नहीं की किस्मत सिर्फ श्रीमान प्याज की ही बदली हो। अरे भाई साहब "Sharad Power" लाटरी ने कईयों को आसमान की ऊचाइयों तक पहुंचा दिया है। अब "चीनी" को ही ले लीजिये। कल तक बेचारी मिडिल क्लास थी, लाटरी क्या लगी अब तो हाथ ही नहीं आती। यही कुछ हाल Mr दूध का भी है। कुल मिलकर "Sharad Power" ही असली "Power" है। 

Wednesday, October 23, 2013

नौटंकी साला

बहादुर शाह जफ़र का नाम तो सुना ही होगा, अंतिम मुग़ल शासक थे। दिल से कवि थे, सत्ता का कोई मोह न था ना ही राज करने की ability थी। मुल्क गया अंग्रेजों के और खुद गए अल्लाह के पास। कुल मिलाकर गलत आदमी गलत जगह। 
कुछ यही हाल राहुल गांधी का भी है। कभी पिछड़ों को jupiter पर पहुंचा देते हैं, तो कभी मध्यप्रदेश की जनसभा में जुबान पर तेल लगा कर पहुँच जाते हैं और बोल बच्चन महिलाओं के साथ भ्रष्टचार कर बैठते है। कोई तरकीब ना चली तो आज emotional कार्ड खेलने से भी गुरेज ना किया। बोला "दादी, पापा को मारा अब मुझे भी मार डालेंगे।" हद्द करते हो राहुल बाबा, सही में हद्द हो गयी। बेटा यही हाल रहा ना तो 2014 में तुम्हारी अम्मा भी नरेन्द्र मोदी को वोट दे देगी। 

Tuesday, October 22, 2013

करवाचौथ

आज सुबह सवेरे facebook खोलते ही एक नामी पत्रिका की एक चर्चित महिला सम्पादक का status मेसेज पढ़ा, मोहोदया ने लिखा था "करवाचौथ का नाश हो, सत्यानाश हो" उनके इस विचार की आलोचना करना सही नही है क्योंकि यह उनकी व्यक्तिगत सोच हो सकती है या खुद पर आधुनिक विचारों से लबरेज़ होने का तमगा चस्पाने की ख्वाहिश या फिर facebook पर सस्ती लोकप्रियता हासिल करने और सेकड़ों हज़ारों Likes पाने की जद्दोजहद, यह कुछ भी हो सकता है। छोडिये इन सब बातों को क्योंकि दो लफ्ज़ ज्यादा निकल गए तो हम पर दकियानूसी पुरुष मानसिकता से पीड़ित होने का आरोप लगा दिया जाएगा।मुद्दा करवाचौथ है उसी पर बात करते है। 
क्या अपने प्रियजन की लम्बी आयु के लिए प्रार्थना करना गलत है ? अब आप कहेंगे की स्त्रियाँ ही सजा क्यों भुगते, तो भैय्या हमने कब कहा की व्रत रखने का ठेका बेचारी औरतों का ही है पुरुष भी रखे।हुम तो कहते है की उस दिन घर में चुल्हा ही ना जलाइये। हम तो यह दावा भी नहीं करते की व्रत रखने मात्र से आपका जीवन साथी भीष्म पितामह की भाँती चिरायु को प्राप्त करेगा। हम तो मात्र यह कहने का प्रयास कर रहे है की इन तीज त्योहारों के पीछे छिपी भावना और इनके महत्व को समझना बेहद जरूरी है। आज के इस युग में पति और पत्नी दोनों ही अपनी अपनी नौकरियों में बुरी तरह व्यस्त होते है, सप्ताह सप्ताह भर बात करने का अवसर तक नहीं मिलता। बड़ी मुश्किल से रविवार को दो घडी बात हो पाती है। ऐसे में रिश्ते की मिठास कहीं खो सी जाती है, इतना वक़्त बाहर गुजरता है की एक दूसरे की कमी खलना ही बंद हो जाती है। आदत सी हो जाती है एक दूसरे के बिना रहने की और ऐसे में छोटी सी अनबन भी विकराल रूप धारण कर लेती है। छोटी सी बातों पर रिश्ते टूटने की कगार पर पहुच जाते है। मित्रों तब ये तीज त्यौहार ही हमारे रिश्तों में गर्माहट लाते हैं। हमें अपनों के करीब ले जाते है। एक दूसरे के निस्वार्थ प्रेम को देख भावनाओं का ऐसा ज्वार उमड़ता है जो इस बंधन को और मजबूत बना देता है। बाकी आप सब समझदार है, निर्णय आप स्वयं करें। 

Monday, October 21, 2013

पापा घर पर नहीं है

जब घर के आँगन में खेल रहे बच्चे से कोई बिन बुलाया मेहमान पिताजी के बारे में पूछता है, तो बच्चा लगभग दौड़ता हुआ भीतर जाता है और पिताजी को उसके आने की खबर देता है। मानो उसके कंधो पर कोई बहुत बड़ी जिम्मेदारी डाल दी गयी हो। पिताजी उस बिन बुलाई आफत से छुटकारा पाने के लिए बच्चे को झूठ बोलने के लिए कह देते है। इस वक़्त बाल मन में एक साथ कई भाव जन्म लेते है। क्रोध "ये क्या बात हुई मुझसे क्यों झूठ बुलवा रहे हो,खुद बोल दो ?" असमंजस "हमेशा तो कहते हैं की सच बोलो और आज मुझसे झूठ बुलवा रहे है ?" ग्लानि "मैं झूठ बोल रहा हूँ।" पीड़ा "अंकल बहुत दूर से आये है।" बस इन्ही मिश्रित भावों के भंवर जाल में फंस चूका वह बालक बिना आँख मिलाए बोल आता है "अंकल पापा घर पर नहीं है।"
हाल ही में कुछ ऐसा ही हुआ। कोयला घोटाले में CBI ने आनन फानन में कुमार मंगलम बिरला और कोयला सचिव पी सी पारेख के खिलाफ FIR दर्ज करी पर अब PMO के रुख को देखते हुए CBI FIR यह कहते हुए वापस लेने का मन बना रही है की उसके पास इस मामले में कोई सबूत हैं ही नहीं। हद है भैय्या। 
   

Sunday, October 20, 2013

गुडिया (भाग-1)

गुड़िया, इसी नाम से पुकारते थे सब उसे। छोटी सी चिड़िया, जिसकी चहक से घर का कोना कोना गूंजता रहता था। हाथ नहीं आती थी किसी के, दो पल के लिए अकेला छोड़ दो, चार मोहल्ले दूर मिलती। छोटी सी पर एकदम शैतान की नानी। एक बड़ी बहिन भी थी। शायद पांच-छह साल बड़ी। कुछ ना बोलती, शांत ही रहती थी, फिर भी ना जाने क्यों दादी उसे हर वक़्त डांटती ही रहती थी। कई बार वो छत पर एक कोने में घुटनों में सिर दबाये रोया भी करती पर गुडिया कुछ समझ नहीं पाती, बस डरी हुई सी देखती ही रहती। बहिन को ही नहीं दादी माँ और गुडिया को भी ना जाने किस बात पर कोसती रहती, हर वक़्त चीखना चिल्लाना जैसे उनकी आदत में शुमार था। 
घर ज्यादा बड़ा नहीं था, दो कमरों, चार चीज़ों वाला घर। पिताजी कपडे वाले लालाजी के यहाँ मुनीम हुआ करते थे। सुबह निकलते, देर रात ही घर आते, रविवार को आधे दिन की छुट्टी मिला करती। उस वक़्त भी पिताजी कुछ कागजों किताबों में व्यस्त रहते। जब बच्चे नहीं पैदा कर रही होती तो माँ, औरतों के कपडे सिला करती थी सलवार सूट वगरह। आँखों पर अंटे वाली कांच की बोतल के पैंदे जितना मोटा चश्मा चढ़ गया था। कभी बडकी तो कभी छुटकी से मशीन की सुई में धागा डलवाया करती, पर सिलाई मशीन की खट-खट बंद नहीं होती। दोनों बेटियों को बहुत प्यार करती थी माँ। रात को सोते वक़्त एक ना एक कहानी जरूर सुनाती। बिना माँ से कहानी सुने तो गुडिया को नींद ही नहीं आती थी। बहुत प्यारी थी माँ। 
चौथे जन्मदिन पर छोटा भाई मिल गया। खेलने के लिए जीता जागता खिलौना। हमेशा चिढ-चिढ करने वाली दादी आजकल बेहद खुश रहती थी। पर बदली नहीं थी छोटे भैय्या को हाथ भी नहीं लगाने देती थी, पास जाते ही गन्दा सा मुंह बनाकर चिल्लाती। पर वो भी कम ना थी जब छोटू भैय्या माँ की गोद में होता तो उसके साथ ढेर सारी मस्ती कर दिन भर की कसर निकाल लेती। 
गुडिया बड़ी हो रही थी अब उसका भी दाखिला बड़की वाले सरकारी कन्या विद्यालय में करवा दिया गया। स्कूल में ढेर सारे दोस्त मिले, बस फिर क्या था, साइकिल हवाई जहाज बन गयी। सार दिन उधम, कभी कहाँ तो कभी कहाँ। चार कक्षाओं के लिए एक अध्यापक थे तो पढ़ाई लिखाई तो उतनी नहीं हो पाती थी पर फिर भी बहुत कुछ सीख रही थी। 
माँ आजकल बीमार बीमार सी रहने लगी थी, वजन बहुत कम हो गया था। सारा दिन खांसती रहती। पता नहीं क्या हो गया था पर फिर भी सिलाई मशीन नहीं छोडती थी। कुछ दवाइयां भी खाती थी। आजकल कुछ ज्यादा ही गले लगाती थी अपने बच्चों को। कभी-कभी रो भी देती। चेहरे का रंग हल्का काला सा पड़ने लगा था। आँखें अन्दर धस सी गयी थी। चलता फिरता कंकाल हो गयी थी माँ। 
एक दिन स्कूल की पूरी छुट्टी की घंटी बजने से पहले ही भोपाल वाले मामा गुडिया को लेने आ गए, उनको देख कर गुडिया बहुत खुश हो गयी, क्योंकि हर बार मामा उसके लिए कुछ ना कुछ लेकर जरूर आते थे। इसी उम्मीद में तेज़ तेज़ लगभग दौड़ती हुई घर की तरफ चलने लगी। गुडिया जब घर पहुंची तो देखा घर के बाहर लोगों का हुजूम लगा है। कुछ औरतें और दादी रो रही थी, पिताजी एक कोने में चुपचाप खड़े थे, बडकी उनसे लिपट कर फूट फूट रो रही थी। कमरे के बीचों बीच माँ लेटी थी, सफ़ेद चादर में लिपटी हुई। मामा ने बताया माँ हमेशा के लिए भगवान जी के घर चली गयी …………………….

Friday, October 18, 2013

मुंगेरीलाल के हसीन सपने


सपने में साधू महाराज को सोने के भण्डार दिख गए, अच्छा है। बाबा जी कृपा करके तेल, गैस, कोयले, लोहे आदि के भी भण्डार देख ले तो देश का कुछ भला हो जाए। पर फ़र्ज़ करें बाबाजी की बात सही साबित होती है तो भला इंजीनियर बाबुओं को फिर कौन पूछेगा। Shell, British Petroleum से लेकर खनन क्षेत्र की बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों में बाबा जी को recruit करने की होड़ सी लग जाएगी। कुछ तो शायद उन्हें partnership तक भी ऑफर कर दे। रात को सपना देखो, सुबह उठकर खुदाई शुरू। बस इसी तरह चलेगा हमारा ये मुल्क। मुंगेरीलाल के हसीन सपनों के बलबूते होगा इस मुल्क का विकास। 

देखिये बात यहाँ यह नहीं है की साधू का स्व्प्न सही है या गलत पर, हो सकता है कोई दिव्य पुरुष हो या कोई देवदूत। पर उन चंद सोने के सिक्कों से देश कितने दिन खुशहाल रह सकेगा ? असली खुशहाली तो तब होगी जब हम अपनी असली दौलत को पहचानेंगे, जो गली मोहल्लों में यूँ ही बिखरी पड़ी है। वो दौलत और कोई नहीं हमारे बच्चे है। हर बच्चा अपने आप में एक खजाना है। हमें बस इतना प्रबंध करना है की उसे सही शिक्षा मिल सके। रोजगार के अवसर मिल सके। बस तभी आएगी इस देश में सही मायनों में खुशहाली। 

Wednesday, October 16, 2013

और प्यार हो गया

BTech कर रहे थे, और जैसे सरकार को चुनाव से एक दो महीने पहले जनता की याद आती है वैसे ही हमे अपनी किताबों की आती थी। वैसे भी ज्यादा पढने लिखने वाले नहीं थे। डिपार्टमेंट के सामने वाले साइकिल स्टैंड पर खड़े-खड़े ही हमारी पढ़ाई हो रही थी।
बरसात की एक सुहानी सुबह उसी साइकिल स्टैंड के सामने से गुजरता हुआ एक चेहरा देखा, प्यार सा, मासूम, एक दम अनछुआ। बैकग्राउंड में गाना बजने लगा "तुम हुस्न परी, तुम जाने जहां, तुम सबसे हसी, तुम सबसे जवां, सौन्दर्य साबुन @#$%^&*( ……"। दखते ही हम सबको को उस से प्यार हो गया, लाजमी भी था उमर ही ऐसी थी। सारे छोरे काम पर लग गए, उसके नाम पते से लेकर उसके बाप भाई का भी पता लगा लिया। 
अब मामला था बात करने का, दो लड़के कुछ ज्यादा ही उत्साहित थे। शर्त लगी और एक ने direct जाकर coffee के लिए पूछ लिया। होना क्या था ? मुंह लटकाए बैरंग लिफ़ाफ़े की तरह लौटते नज़र आये। माथे पर बेहूदा लड़के का tag और लगवा आये। अब भैया यह तो कोई तरीका ना था। दूसरा समझदार था, कुछ दिन शांत रहा। फिर अचानक एक दिन लड़की के सामने जा खड़ा हुआ, बड़े सलीके से पुछा "excuse me आपने यह सलवार सूट क्लोथ मार्केट से लिया है ? मेरा मतलब कौनसी दूकान से, actually राखी आ रही है और मुझे मेरी sister के लिए कुछ भेजना था। आपका सूट देखा तो लगा ये सबसे अच्छा रहेगा।" वह एक सांस में सब कुछ बोल गया। लड़की एक दम सन्न रह गयी पर एक भाई की भावनाओं को देख उसका दिल गद गद हो गया। दूकान का नाम बताया और और कपडा पहचानने की टिप्स भी दी। लड़का सर खुजलाता हुआ नादान बना खडा रहा। आखिर में तय हुआ की लड़की साथ चल कर सूट दिलवाएगी। नियत तिथि पर लड़का Deo की पूरी बोतल खुद पर उड़ेल लड़की के साथ शौपिंग पर निकल गया। एक सूट खरीदा और cafe coffee day में एक 2 घंटे में एक coffee और कहानी शुरू ............................................... 

Tuesday, October 15, 2013

भूखा

कॉलेज के बाद खुदा ना खास्ता नौकरी ना लगे तो भैया घरवाले तो बच्चे की हालत समझ ज्यादा कुछ नहीं कहते पर मोहल्ले की आंटियों की नज़रें और ताने जीना मुहाल कर देते है। अपने बेटे से कहीं ज्यादा चिंता उन्हें पडोसी के लड़के की होती है, उसकी पढाई, नौकरी, छोकरी हर बात में उनकी दिलचस्पी देखने लायक होती है। खुदके लौंडे से दसवी पास ना हो रही, पडोसी के लड़के के BTech के मार्क्स की चिंता हो रखी है। Uncle बेचारे क्या बोलते, उनकी बोलती तो शादी के बाद से ही बंद है। कुल मिलाकर हम पर आंटियों का कहर जारी था। 
हम नौकरी की उम्मीद छोड़ चुके थे। पिताजी बैंक PO से लेकर पटवारी तक की परीक्षाओं के आवेदन भरवाने लगे। बहुत अजीब लगता था पर और कोई चारा नहीं था। 30 की उमर पार कर चुकी बिन ब्याही लड़की और निकम्मे लड़के को घर वालों की बात माननी ही पड़ती है, पसंद नापसंद मायने नहीं रखते, आत्म विश्वास की धज्जियां उड़ जाती है। 
पर अचानक दिन बदले, हमारे yahoo के inbox में एक कंपनी का इंटरव्यू के लिए बुलावा आया। दिल्ली बुलाया था, 3rd AC का आने जाने का भाड़ा भी दे रहे थे। हम बड़े खुश हुए। रात का खान खाकर, माता पिता का आशीर्वाद ले, दस बजे की ट्रेन पकड़ ली। दिल में घबराहट थी पर ईश्वर पर विश्वास भी था। 
नौ बजे कंपनी के दफ्तर पहुचना था पर रेलगाडी भारतीय रीति को मद्देनज़र रखते हुए 2 घंटे की देरी से दिल्ली स्टेशन पहुची। 8:30 बज चुके थे तो हमने waiting रूम में ही खुदको चमका कर भागने में बेहतरी समझी। जैसे तैसे सवा नौ तक वहां पहुचे। देखा तो रंग उड़े चेहरों की पूरी एक जमात वहां पहले से बैठी थी। साफ़ सुथरे कपडे, किसी किसी के गले में टाई, खुरच खुरच कर चिकना किया गया चेहरा, हाथों में जन्म से लेकर आजतक का हिसाब किताब और मुंह में इष्ट का नाम। बड़ा भयभीत कर देने वाला दृश्य होता है। मैं धीमे धीमे क़दमों के साथ एक खाली कुर्सी पर जा बैठा। 
पेट खाली था पर इतना फर्क नहीं पड़ रहा था, इतने सारे बन्दे देख पहले ही हालत खराब थी। पहले written हुआ फिर इंटरव्यू होना था। written होते होते तक एक सवा बज चुका था तो हमे खाने के लिए भेज दिया गया। नाश्ता नहीं किया था तो भूख तो बड़ी जबरदस्त लगी ही थी। मैं लम्बे लम्बे क़दमों के साथ डाइनिंग हॉल की तरफ बढ चला पर भाईसाहब ये क्या ? वहां veg के साथ नॉन veg भी सजा हुआ था। गलत नहीं कह रहा पर भैया जिन्होंने बचपन से ना देखा हो तो उनकी हालत खराब होना तो लाजमी होता है, मेरा तो मन खराब हो गया, हिम्मत ही ना हुई खान खाने की। गंध सिर में चढ़ रही थी। मैं भाग कर बाहर आ गया। किसी तरह खुद को संभाल वापस आकर बैठ गया। 
दिन यूँ ही बीत गया कुछ नहीं खाया। खाली पेट गैस बन गयी, सिर फटने लगा। जैसे तैसे इंटरव्यू दे कर बाहर आया सोचा बस अड्डे पर कुछ खाकर घर के लिए बस पकड़ लूँगा। 
वहां पहुंचा तो पता चला हमारे शहर की बस निकलने ही वाली है। निर्णय लेने का भी वक़्त ना था, बस पकड़ ली। भूख से हालत बेहद खराब थी। पडोसी के patato chips के पैकेट को भिखारियों की तरह देख रहा था। भूख इंसान को पागल बना देती है। रात के 12 बजने को थे, पेट खाली था, दिमाग पूरी तरह सुन्न हो चूका था, हल्की हल्की सी झपकी में भी रोटी के सपने आ रहे थे। मैं पागल होने की कगार पर था, चीखना चाहता था चिल्लाना चाहता था। 
लगभग एक बजे ड्राईवर ने गाडी एक होटल पर रोकी, मैं लगभग भागता हुआ बहार आया पर आज भगवान परीक्षा लेने के मूड में थे, होटल के बाहर सींक कबाब लटका था। मैं नाक बंद कर आगे चला और जाकर काउंटर पर खड़े आदमी से मेनू पुछा। दाल फ्राई और चार रोटी का आर्डर दे बाहर आ गया। फिल्मों में सुना था पर सही मायनों में उस वक़्त इंतज़ार का हर एक पल एक सदी की तरह लग रहा था। खाना आया और मैं राक्षसों की तरह उस पर टूट पड़ा। सारी हीरो गिरी निकल गयी, नॉन veg के बगल का खाना खा लिया। 
वो दिन हमेशा याद रहेगा। भूख इंसान को पागल बना देती है, उसे किसी भी हद्द तक जाने के लिए मजबूर कर देती है। सही गलत कुछ नहीं दिखता। ज्ञान प्रवचन सब धरे के धरे रह जाते है। इंसान दरिंदा बन जाता है। 
समझ सकें तो समझ लीजिये, सड़क किनारे के गरीबों को प्रवचन देने और भिखारियों को कोसने की बजाय हो सके तो अपनी आमदनी का एक हिस्सा ऐसे कामों में लगाए की हर किसी को दो वक़्त का खाना नसीब हो सके। कोई बच्चा भूखा ना सोये। सरकार पर मत छोडिये, वो तो अपनी रफ़्तार से करेगी। आगे बड़ो अपने हिस्से का काम करो।  

Sunday, October 13, 2013

काला सफ़ेद


रावण अच्छा भला आदमी था, ज्ञानी, वीर और अदम्य साहसी। अपनी तपस्या से शिव जी तक को प्रसन्न कर दिया था। औरत के चक्कर में कट गए भाईसाहब। खुद के सिर कटवाए, बहन की नाक। कुम्भकरण को बड़ी नींद आती थी, इनके चक्कर में हमेशा के लिए सो गया। और देखा जाए तो किया भी क्या था ? सीता जी को private jet से लाये, सारी facilities वाले Sri Lankan Royal Suite में रखा, नौकर चाकर, खाना पीना सब कुछ। सबसे बड़ी बात छुआ तक नहीं, फिर भी राम जी को दया नहीं आई, चला दिया तीर नाभि पर। उन्होंने मारा वो तो ठीक, हम और हर साल पुतला जलाकर खुश होते रहते है। कुल मिलाकर खाया पिया कुछ नहीं, ग्लास तोडा बारह आना।
चलिए छोडिये, रावण का तो जो होना था हो गया, पर इतना जरूर कहा जा सकता है की राम का ईश्वरीय स्वरुप रावण की ही देन है। राम को पूजनीय बनाने वाला रावण है। Villain के बिना Hero का कोई मोल नहीं। समाज को Hero चाहिए, रोल मॉडल्स चाहिए, एक ऐसा  आदर्श व्यक्तिव, जिसका अनुसरण किया जा सके। स्कूली किताबों में जिसके महान चरित्र और कारनामों का वर्णन किया जा सके। रात को सोते वक़्त बच्चों को उसके किस्से कहानिया सुना कर प्रेरित किया जा सके। बस इसी जुगत में लेखक बुराई को एक दो shade और dark कर देते है और अच्छाई को milky white बना देते है। शायद रावण के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ हो। शायद राम के चरित्र को उभारने के लिए रावण के color को कुछ ज्यादा ही कंट्रास्ट कर दिया गया हो। 
जो भी हो सही यही होगा की रावण से घृणा करने की बजाय हम राम के सद्कर्मों को अपना आदर्श बनाए। 

Monday, October 7, 2013

बाबाजी का ठुल्लू

आजकल की बात छोड़ दे तो पहले तन्ख्वायें उतनी नहीं हुआ करती थी। मुट्ठी बांधकर और मन मारकर चलना पड़ता था। घर की औरतें तो सारा दिन आमदनी और खर्च के तराजू का संतुलन बैठाने की जुगत में ही रहा करती थी। सब्जी तरकारी के लिए सब्जी मंदी के हज़ार चक्कर काट लेती थी, क्या पता अगले ठेले पर कुछ कम में मिल जाये। बच्चों की बे फिजूल की मांगों पर उन्हें कभी डांट कर तो कभी प्यार से घर के आर्थिक हालात के बारे में समझा दिया जाता था । बस इसी तरह रूपये दो रूपये बचा कर घर की economy को recession में जाने से बचा लेती थी। कुल मिलाकर जितनी लम्बी चादर हो उतने ही लम्बे पैर पसारने चाहिए ये बात हर घर की औरत को पता थी।
पर शायद यही बात हमारे economist प्रधानमंत्री को नहीं पता। अर्थव्यवस्था का बेडागर्क होने की कगार पर है। रुपया अपने निम्नतर स्तर पर जा बैठा है। वित्तीय घाटा की खाई दिन ब दिन चौड़ी होती जा रही है और PM साहब है की मुफ्त की रेवडिया बांटने में लगे है। सरकारी कर्मचारियों को 10% DA में वृद्धि का तौहफा देने के बाद 7th वेतन आयोग का उपहार भी दे डाला। वोट पाने के लिए सरकारी खजाने को खाली किया जा रहे है। अगली सरकार जब खजाने का दरवाजा खोलेगी तो उसे मिलेगा "बाबाजी का ठुल्लू"।

Friday, October 4, 2013

"A" Certificate

एक आम शहरी ग्रेजुएट की तरह मुझे भी नौकरी के लिए दूसरे शहर जाना पड़ा। घर, मोहल्ला, यार दोस्त सब के सब पीछे छूट गए, बहुत पीछे। इतने की शायद गिने चुनो के ही चेहरे अब याद हैं। साल छह महीने में जब घर जाना होता है, तो हर बार चेहरे बदले हुए से नज़र आते हैं, कुछ ज्यादा बूढ़े होते हुए तो कुछ जल्दी बड़े होते हुए तो कुछ नए भी। जो कल तक गोद में थे आज वो हाथ में भी मुश्किल से आते हैं। घर के सामने वाली सड़क पर खड्डे बड़े होते जाते हैं, और चलने की जगह छोटी। 
इस बार गया, एक सुबह माँ ने घर का कुछ सामान लाने को मुझे बाज़ार भेज दिया। दूकान पर एक जाना पहचाना सा चेहरा दिखा, कहीं तो देखा था। पर जल्द ही याद आया की सामने खड़े जनाब तो हमारे स्कूल के मित्र है। पुराने मित्र और बक्से में पड़ी पुरानी चीज़ें जब दिख जाए तो भावनाओं का ज्वार उमड़ आता है। शुरूआती बड़प्पन की झिझक के बाद हम जल्द ही खुल गए। BCom के बाद मित्र आजकल अपने ही पिताजी का cinema hall संभालते थे। जमा जमाया बिज़नस था तो करियर चुनने का कोई विकल्प ना था बस लग गए धंदे पर। 
उसने ऑफिस तक चलने को कहा तो हम चल दिए। पहुंचे तो देखा "A" फिल्म लगी हुई है पोस्टर देख हमारे कदम तो वही रुक गए। पर मित्र को कहीं बुरा ना लग जाए इसलिए सहजता में लिपटी असहजता के साथ हम तेज़ कदमो से उसके केबिन में जा घुसे। कोई देख लेता तो ना जाने क्या सोचता, "अच्छा तो ये शौक भी रखते है जनाब"। आते ही हमने सवाल दाग दिया "अरे भाई ये किस तरह की फ़िल्में लगा रखी है ?" मित्र ने मेरी असहजता को भांप धीरे से मुस्कुरा कर कहा की "देखो मित्र मैं एक व्यापारी हूँ और मेरा ध्येय पैसे कमाना है। हमारा सिनेमा हॉल बहुत पुराना है, पहले हमारे यहाँ भी सामान्य "U" श्रेणी की फ़िल्में ही लगा करती थी पर Hit, Flop के चक्कर में कई बार नुक्सान उठाना पड़ता था। फिर भी किसी तरह काम चला लिया करते थे। Internet और Mulltiplex का दौर शुरू होने के बाद तो वह भी मुश्किल हो गया। घरेलु फ़िल्में या तो download कर ली जाती है या किसी Mall में बने मल्टीप्लेक्स में देखी जाती है। Single screen में तो कबूतर ही अपना घोसला बनाने आने लगे। बात "A" फिल्मों की करें तो भैया ये कभी फ्लॉप नहीं होती, थोडा बहुत मुनाफा तो दे ही जाती है। और वैसे भी हम किसी दबाव तो नहीं डाल रहे, लोग खुद ब खुद आते है और देख कर निकल लेते है। बोलो हम क्या गुनाह कर रहे है ?" बात में तो दम है बन्दे की …
कुछ यही हाल राजनीति का है। हम राजनैतिक दलों को दोष देते हैं की वे अपराधियों को चुनावी टिकट देकर राजनीति का अपराधीकरण करते हैं। पर भैया सोचने वाली बात तो यह ही की उन अपराधियों को चुनाव जिताने वाले तो हम ही हैं। हम जीता रहे है तो पार्टियां तो जीतने वाले घोड़ों पर ही दांव लगाएंगी। अपने निजी स्वार्थ पूरे करने के लिए हम उनको सत्ता में बिठाते है और दोष राजनैतिक दलों के माथे मढ़ देते है। 
कुल मिलाकर बात यह है भैया इस बाज़ार में जो चलता है वही बिकता है। 

शौचालय या देवालय


एक नेता ने कह दिया की देवालय से पहले शौचालय बनाये जाने चाहिए, तो घर गली मोहल्ले से लेकर राजनैतिक गलियारों में हडकंप सा मच गया। मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में बहस छिड़ गयी। विपक्षी दल के एक नेता ने इस डायलाग को अपना बताया, तो किसी एक संगठन ने इस बयान को सिरे से नकार दिया। छोडिये इन सब बातों को, राजनीति तो होती रहेगी। आखिर हमें चाहिए क्या ? शौचालय या देवालय ? 

देखा जाए तो प्राथमिकता के क्रम में देवालयों और शौचालयों से कहीं पहले "विद्यालय" आने चाहिए। कुछ दिन भगवान को मन में ही पूज लेंगें, खुले में निपट आयेंगे, आज तक भी तो कर ही रहे थे। जरुरत है इस मुल्क के हर एक बच्चे को शिक्षित और आत्म निर्भर बनाने के लिए "विद्यालयों" की, बच्चे पढेंगे, लिखेंगे आगे बढेंगे, उद्योग कारखाने लगायेंगे। तभी इस मुल्क का विकास होगा, विकासशील से हम विकसित बन पायेंगे। काम कराने के लिए तो नेपाली बांग्लादेशी बहुत है। 
कुल मिलाकर ना देवालयों की ना शौचालयों की इस मुल्क को जरुरत है "विद्यालयों" की। 
पढ़ेगा India तभी तो बढेगा India

Wednesday, October 2, 2013

कच्चा खिलाड़ी

90 के दशक के अंत में शहर मोहल्ले के बच्चों में video games का craze अचानक से जोर पकड़ रहा था। ये वो दौर था जब computer का नाम सिर्फ विज्ञान पत्रिकाओं में ही पढने में आता था। ऐसे में samurai और media के ये इलेक्ट्रॉनिक डिब्बे कुछ hi-fi से ही प्रतीत होते थे। 
इस craze को भुनाने के लिए कई छोटे बड़े विडियो गेम्स पार्लर शहर में कुकुरमुत्तों की तरह इधर उधर उग आये थे। कई STD PCO, Zerox वालों ने भी दूकान के पिछले हिस्से में एक टीवी डाल दिया। बच्चे आते और 1 रूपये में 15 min के हिसाब से खेल खाल कर निकल लेते। 
एक बार हम अपनी माताजी के साथ किराने की दूकान पर घर का सामान खरीदने बाज़ार गए। ज्यादा बड़े नहीं थे दूसरी तीसरी में रहे होंगे। माँ ने दुकानदार को सामान की लिस्ट थमा दी और इंतज़ार करने लगी, उस जमाने में घर का सामान जरुरत के हिसाब से खरीदा जाता था, आजकल तो सामान देख कर जरूरतें पैदा हो जाती है। मैं माँ के साथ ही खड़ा था तभी पड़ोस की दूकान से आती हुई MARIO की आवाज़ की तरफ मेरा ध्यान गया। मैंने झाँक कर देखा कुछ बच्चे उछल उछल कर विडियो गेम खेल रहे थे। बाल मन में इच्छा जाग गयी और मैंने माँ के कान में धीरे से कहा की मुझे भी खेलना है। उन दिनों तन्ख्वायें ज्यादा नहीं होती थी। माँ ने मेरे चेहरे की तरफ देख कुछ सोच कर हाँ कर दी। माँ मुझे video game वाले के पास ले गयी, पर हम तो खेलना नही जानते थे। मैं चतुराई के साथ बोला "भैया आप हमे बता दीजियेगा हम वही बटन दबा देंगे" पर इस तरह कोई भी खेल नहीं खेल जा सकता, 1 मिनट में काँटों वाले गमले से टकरा टकरा कर हमारा Game Over हो गया और हम मुंह लटकाए बाहर आ गये। 
राहुल बाबा का भी यही हाल है, राजनीति के नए खिलाड़ी है। दस पांच चेले चपाटों की फ़ौज उन्हें सलाह देती रहती है, और वो भी उनके अनुसार चलते रहते हैं । उलटे सीधे बयान दे कर एक दो लाइफ लाइन तो पहले ही गवां चुके है, जल्द ही ना समझे तो राजनीति से उनका Game Over होते अब देर ना लगेगी।

Tuesday, October 1, 2013

बाबा जी का झोला

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बाबा जी का झोला
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बचपन में हम बड़े नटखट और शैतान किस्म के बच्चे हुआ करते थे। एक जगह टिक कर बैठना तो हमारी फितरत में था ही नहीं, पहिये लगे थे हमारे पैरों में। दिन भर धमा चौकड़ी, दिन भर मस्ती। शांति किस चिड़िया का नाम है हमें कोई खबर ना थी। हमारी माताजी homework complete कराने के लिए बड़े जतन किया करती थी। कभी डांट फटकार कर तो कभी पिताजी का डर दिखा कर, वो हर मुमकिन कोशिश किया करती थी ताकि हम थोडा पढ़ लिख ले। पर भाई बहते पानी को क्या कभी कोई रोक पाया है ? हम उनके हाथ ही नहीं आते थे।

फिर एक दिन घर के दरवाजे पर कोई साधू बाबा आये, बड़ा अजीब सा look था उनका। बड़ी लम्बी दाढ़ी मूंछे, round round करके लपते हुए लम्बे बाल, पूरे चेहरे पर भभूत, माथे पर टीका, गेरुए वस्त्र, बगल में लटका बड़ा सा झोला। उन्हें देख हम डर कर घर के भीतर भाग आये और माँ की साडी के पल्लू में अपना चेहरा छुपा लिया। दुनिया में वही सबसे सुरक्षित जगह होती है। माँ मुझे देख हल्का सा मुस्कुराई, कटोरे में आटा भरा और बाहर खड़े साधू बाबा के बड़े से झोले में डाल दिया। साधू बाबा तो चले गए पर हमें डराने के लिए हमारी माँ को एक हथियार दे गए। फिर क्या था, जब भी हम उधम मचाते हमारी माँ हमें साधू बाबा के पास छोड़ आने की धमकी दिया करती, कहती की जो बच्चे शैतानी करते है बाबा जी उन्हें अपने झोले में डाल कर ले जाते है। सच में बड़ा भय लगता और हम शांति से बैठ जाते। कभी कभी तो रुआंसे भी हो जाते। कुल मिलाकर माँ की यह बात हम दिमाग में बुरी तरह घर कर गयी, अब हर बाबा हमे राक्षस की भाँती लगने लगे थे। हमें लगता था मानो हर बाबा बच्चा चुराने का काम ही करता है और उसका झोला बच्चों से भरा रहता है।

आजकल भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। कहीं किसी cartoon channel पर गणेश जी स्कूल में किसी बच्चे का होम वर्क कर रहे है तो किसी और बच्चे की पिटाई। छोटा भीम तो कुत्ते से लेकर Dinasours से पंगे ले रहे है। हनुमान जी स्कूल जाते है और रास्ते में डाकुओं से लड़ आते हैं। यही हाल कृष्णा और बाकियों का भी है। जो director जैसे चाहे भगवान को नचा रहा है। असल कथा का तो दूर दूर तक नामो निशाँ भी नहीं है। बस धीरे धीरे यही कहानियाँ बच्चों का सच बन जायेंगी। आज नहीं पर कुछ पुश्तों बाद तो बच्चे यही सोचेंगे की भीम तो कभी बड़े हुए ही नहीं वे हमेशा छोटे ही थे।
देखिये ऐतिहासिक चरित्रों पर धारावाहिक बनाना गलत नहीं है पर साथ ही यह सावधानी भी बरतनी होगी की कहीं हमारी काल्पनिकता मूल कथा और चरित्र का स्वरुप ही ना बदल दे। क्योंकि जैसे गीता और कुरान में लिखी हर एक पंक्ति आज हमारे लिए निर्विवाद रूप से सत्य है वैसे ही यदि आने वाली पीढीयाँ आज की कृतियों को आधार बना सत्य की परिभाषा गढ़ने लगी तो अंजाम भयावह तथा कल्पना से परे होगा। 

Monday, September 30, 2013

Scooter vs Scooty


कल्पना करें बीच बाज़ार में आपका पुराना स्कूटर ख़राब हो जाए, हिलाया डुलाया, फिर टेड़ा किया, स्पार्क प्लग भी साफ़ कर लिया पर फिर भी स्टार्ट ना हुआ। हद हो गयी, किक मार मार का टांग जवाब दे जाएगी पर खुदा कसम कोई आकर help नहीं करेगा। पैदल चलने वाले आपको घूरते हुए निकल जायेंगे। रेहड़ी - ठेले वाले एक कुटिल सी मुस्कान देते हुए वहीँ खड़े आपको ताकते रहंगे, बोलेंगे कुछ नहीं। कुछ गाडी वाले इस कदर नज़र अंदाज़ करेंगे की कही आप चिल्ला कर उन्हें हेल्प के लिए ना बोल दे वैसे भी गाडी होने के बावजूद वे दफ्तर के लिए हमेशा लेट ही होते है, हाँ एक दो समझदार टंकी में पेट्रोल चेक करने को जरूर बोल देंगे, मानो हम तो दिमाग से पैदल है, यूँ ही सड़क के बीच वर्जिश करने का मन हो गया जो किक मार मार कर चर्बी जला रहे है।

अब फ़र्ज़ करें की गाडी scooty हो और किक मारने वाली कोई खुबसूरत लड़की तो बाज़ार में खड़े लड़के भले ही एक घडी शर्म कर जाए पर अधेड़ तो बेटा-बेटा बोल कर help करने पहुँच ही जायेंगे और खुदा ना खास्ता जो टंकी खाली मिली तो आधा पौन लीटर तेल अपना निकाल  कर दे देंगे। अकेली बच्ची बेचारी कहाँ जाएगी ?
अब आप लोग कहेंगे भई कोई इंसानियत दिखा रहा है तो तुम्हारे क्यों पेट में दर्द हो रहा है ? क्या किसी जरुरत्मन्द की मदद करना अपराध है ? नहीं नहीं बिलकुल नहीं, कोई अपराध नहीं, बस कभी-कभी ऐसी दया दृष्टि लौंडों पर भी दिखा दिया करें। बच्ची के साथ कभी कभी बच्चों पर भी इंसानियत की बारिश कर दिया करें तो बेहतर होगा। 
कुछ अलग या नया नहीं लिखा आप सब वाकिफ है बस दर्द को अलफ़ाज़ दे दिए। 

बे"चारा" Common Man

जमींदार के लौंडे ने दुखीराम किसान की बेटी छुटकी के साथ दुर्व्यवहार किया, दुखीराम और बाकी गाँव वालों में जमींदार का बड़ा खौफ था पर जैसे तैसे हिम्मत जुटा कर वे लोग जमींदार की चौखट पर इंसाफ की गुहार लगाने पर पहुंचे। जमींदार ने सब कुछ सुनकर अपने वाहियात लौंडे को वहीँ बुला भेजा। लड़का बड़ी बेशर्मी के साथ बालों में हाथ घुमाता हुआ आया, ना कोई शर्म ना कोई पछतावा। जमींदार साहब तेज़ आवाज़ में बोले "बदतमीज़ ये क्या किया तुमने ? खानदान के नाम पर कलंक लगा दिया तुमने। अरे इस गाँव के लोग हमारे बच्चों की तरह हैं, और आज तुमने हमे इनके सामने शर्मिंदा कर दिया। छुटकी तुम्हारी बहन जैसी है, चलो माफ़ी मांगो उस से।" 
बेहया लौंडा छुटकी के सामने जाकर हाथ जोड़ कर वहां से निकल गया। जमींदार जानता था गरम तवे पर पानी डालकर उसे कैसे ठंडा करा जाता है। गाँव वाले खुश, भैया जमींदार के लौंडे ने माफ़ी मांग ली और क्या चाहिए ? ख़ुशी में पागल हुए ये लोग छुटकी के उन आंसुओं को भूल ही गए। भूल गए की छुटकी की इज्ज़त माफ़ी से वापस ना आएगी। गरीब आदमी को तो उम्मीद ही नहीं होती, इतना तो बहुत है। 
बस कुछ ऐसा ही लालू यादव के मामले में हुआ, 950 करोड़ के चारा घोटाले में ये मामला 37 करोड़ का था। अदालत ने दोषी क्या ठहराया जनता खुश तो मीडिया बावली हो गया। मानो भ्रष्टाचार के रावण का अंत हो गया। खुशियाँ मनाई जा रही है पर किस बात की ? 4-5 साल अन्दर रह लेंगे पीछे से उनकी दूकान बेटा चलाएगा। भई अगर ऐसी facility available है तो इस मुल्क के सभी गरीबों को अन्दर कर उनके परिवार वालों को 35-35 करोड़ बाँट देने चाहिए। कुछ साल के दुःख के बाद जिंदगी भर खुश रहेंगे। 
कुल मिलाकर बात यह है की क्या वाकई ये सजा काफी है ? एक आदमी ने अपनी ड्यूटी नहीं निभाई, सालों तक कुर्सी से चिपका रहा पर देश समाज का कोई विकास ना किया, राज्य को गरीबी के दलदल में इस कदर धसा दिया की आज की सरकार विशेष राज्य के दर्जे की भीख मांगती घूम रही है। उन कुछ करोड़ रुपयों के लिए नहीं बल्कि उन करोड़ों लोगो के साथ विश्वासघात करने के लिए ऐसे लोगों के लिए बड़ी से बड़ी सजा भी कम होगी। 
हम नहीं समझेंगे क्योंकि हम तो common man हैं हम तो इसी बात का जश्न मनाएंगे की चलिए at least किसी politician को सजा तो मिली। मनाइये मनाइये .....

Sunday, September 29, 2013

भैया बोल बच्चन

इस मुल्क में सिर्फ तीन चीज़ें चलती हैं, क्रिकेट, बॉलीवुड और राजनीति। क्रिकेट इस मुल्क की रगों में बहता है। एक वक़्त था जब India का मैच चल रहा होता था तब आदमी जन्नत में हो या जहन्नुम में स्कोर पूछना नहीं भूलता था। देश रुक सा जाता था। 20-20 क्रिकेट के आगमन बाद वो बात तो नहीं रही, अब तो क्रिकेट daily sop की तरह हो गया है। 8 बजे शुरू होकर 11 बजे तक ख़त्म भी हो जाता है। नए नवेले खिलाड़ी, रंगीन पोशाकों में पूरी शिद्दत खेलते नज़र आते है ताकि भविष्य में Pepsi, कोका कोला का एक-आध विज्ञापन मिल सके। चलो अच्छा ही है। सब कुछ बदला पर एक चीज़ नहीं बदली, मैच देखने वाला हर शख्स कल भी और आज भी सचिन से लेकर धोनी को हर बॉल पर छक्का ना मारने के लिए कोसता हुआ, अपने घर के ड्राइंग रूम में टीवी के सामने बैठ उन्हें अच्छा खेलने के tips देता रहता है।
"ओये… पुल शॉट मार पुल ……"
"क्या कर रहा है यार, बाहर जाती हुई बॉल को मत छेड़ …"
भाईसाहब ने कभी जिंदगी में बल्ला ना पकड़ा हो, पर बात ऐसे करेंगे जैसे Sir Donald Bradman की छठी औलाद हो। ये वे लोग होते है जिन्हें Off और leg side का फर्क नहीं पता होता पर ये साथ बैठे लोगों में सामने ऊंची ऊंची फेकने में कोई कसर नहीं छोड़ते। और जो गलती से सचिन 1 या 2 रन पर आउट हो जाए तो उसके retirement की प्लानिंग भी यही लोग कर देते है। कुछ अजीब ही hote है हम लोग।
बस राहुल गाँधी का व्यक्तित्व भी कुछ ऐसा ही है। बड़ी बड़ी बातें, ये करना चाहिए वो करना चाहिए और जब बात जिम्मेदारी लेने की आये तो माँ बेटा दोनों गायब हो जाते हैं। कार्यकर्ताओं की classroom कोचिंग चला रखी है पर खुद ने कभी एक exam ना दिया। बातें और शिकायतें ऐसी करते है, जैसे किसी दूसरी पार्टी की सरकार चल रही हो। क्यों सुनी जाए आपकी बात ? आखिर क्यों ? सुझाव तो मैं भी आये दिन देता ही रहता हूँ, देश की सूरत बदलने वाले ideas की भरमार तो मेरे पास भी है। फिर फर्क क्या है मुझ में और आप में ? फर्क है राहुल भैय्या, आपके पास नीतियों को लागू करवाने का शक्ति है हमारे पास नहीं है। बस भाई बहुत हुआ ये कुर्ते की बाहें ऊंची कर press के सामने अमिताभ की तरह angry young man बनने की नौटंकी बंद करो। आगे बड़ो, जिम्मेदारी लो और कुछ बदल कर दिखाओ फिर बात करना। ये nonsense nonsense की रट लगाने से कुछ ना होगा।  

Friday, September 27, 2013

फटा पोस्टर निकला राहुल

जवानी की देहलीज पर कदम रखने से ठीक पहले मुहांसे और जुबान कुछ ज्यादा ही निकल आते है। मुहांसों पर क्रीम लगाई जा सकती है, पर जुबान पर लगाम लगाना आसान नहीं होता।  लड़कपन का वो दौर ही अलग होता है, घर के बड़ों को मोबाइल या कंप्यूटर के एक दो function सीखा कर हम खुद को बेहद समझदार समझने लगते है। फिर क्या… बड़ों की हर बात में बिना सोचे समझे बीच में बोलना, और उन्हें सलाह देना शुरू कर देते है। बस इसी ज्यादा बोलने के चक्कर में किसी दिन घरवालों की भद पिटवा आते है।
बस यही आज राहुल गांधी के साथ हुआ, वो अलग बात है की लड़कपन की बिमारी उन्हें अधेड़ उम्र में आकर हुई। क्रान्ति की मशाल उठाने के चक्कर में अपनी झोपडी को आग लगा ली। अपनी ही सरकार की भद पिटवा ली। कुछ भी कहो पर मोदी जी आज बड़े खुश हो रहे होंगे। 

Thursday, September 26, 2013

Breakup वाला Love

हमारे मित्र का दिल मोहल्ले में नई आई एक लड़की पर आ गया। आना लाजमी भी था, लड़की सुन्दर और बाप करोडपति, ये बड़ा deadly कॉम्बिनेशन होता है। अच्छे-अच्छे emotionless लोगों के भी emotions जाग जाते हैं। कुल मिलाकर लड़का लड़की के पीछे बावला हो गया।  माताओं की आपसी बातचीत शुरू हुई तो घर आना जाना बढ़ा। लड़का बेकरार तो था ही इसलिए किसी ना किसी छुट्टे बहाने से लड़की के यहाँ पहुँच जाता था। लड़की दोस्त बनी तो पता चला की already committed है, बॉय फ्रेंड बंगलौर में किसी IT कंपनी में है। पल भर में लौंडे के सारे के सारे अरमानों पर पानी फिर गया पर लड़के ने हार नहीं मानी। चुपचाप लड़की का फ्रेंड कम पालतू कुत्ता बन गया। कुछ लाना हो या कहीं ले जाना हो, 24X7 मैडम की सेवा में। दोस्त लोग चिडाते, मजाक बनाते पर लड़का अनसुना कर देता। 
एक दिन पता चला किसी बात पर लड़की का उसके बॉय फ्रेंड से ब्रेकअप हो गया, वैसे भी ये फ़ोन अ फ्रेंड वाले रिश्ते ज्यादा नहीं चलते। बस लड़की डिप्रेशन मोड में आ गयी, खोई-खोई उदास सी रहने लगी। बस हमारे मित्र ने मौके पर चौका मारते हुए अपना कंधा आगे कर दिया। दुखी आदमी और शायरों को क्या चाहिए, बस कोई उनकी सुन ले। लड़की 3-4 महीने तक उसे अपने पूर्व प्रेमी के किस्से सुनाकर पकाती रही पर वो भी बड़ी शान्ति से सुनता। एक दिन भावनाओं का बांध टूटा और लड़के ने अपनी भावनाओं का इज़हार कर दिया। जैसे दूकान में 50 साड़ियाँ खुलवाने के बाद एक भी ना खरीदे निकलना उतना आसान नहीं होता वैसे ही बेचारी यहाँ कैसे मना कर पाती, हाँ कर दिया। लड़का खुश, टारगेट accomplished। 
बस यही भारतीय राजनीति में हो रहा है। BJP और JDU का ब्रेकअप क्या हुआ, कांग्रेस JDU को लुभाने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ रही। सुना है विशेष राज्य का दर्जा भी दिया जा रहा है। 
चलो अच्छा है …. 

Monday, September 23, 2013

चोकलेटी दंगे

भाईसाहब ये चोकलेट भी क्या चीज़ बनायी गयी है, हमारे बच्चे के दांत खराब कर दिए। चिपक जाती है दांतों में। अब बेचारे बच्चे दिन रात तो मुंह में ब्रश दबाये नहीं घूमते रहेंगे ना, लग गए कीड़े दांतों में और छोटी सी उमर में मुंह से से एक-एक करके सारे दांत ऐसे गायब हुए जैसे इस मुल्क से इमादारी। ऊपर से आप इन आफत की पोटलियों को इतना स्वादिष्ट बना देते हैं, की बच्चा तो खाना भी तब तक नहीं खाता जब तक उसके हाथ में एक चोकलेट ना थमा दी जाए। गलती आपकी है, सरासर आपकी, आखिर ऐसी बेफिजूल की चीज़े आप बनाते ही क्यों है ? जिनसे बच्चों की सेहत ख़राब हो। अरे मैं तो कहता हूँ, सारी चोकलेट की फैक्टरियों पर ताला जड़वा देना चाहिए।
कुछ ऐसा ही नज़ारा राष्ट्रीय एकता परिषद् की बैठक में देखने को मिला जब एक-एक करके हर राजनैतिक दल के नेताओं ने कौमी दंगो के लिए social media याने facebook, twitter को जी भर कर कोसा। साम्प्रदायिक हिंसा की सारी जिम्मेदारी इन के मत्थे मड दी। कोई पाबंदियां लगाने की बात कह कर निकल गया तो किसी ने अमेरिका से लेकर असम तक के हर दंगों में सोशल मीडिया का role बता दिया। सबसे मजेदार बात तो यह है की इन में से अधिकाँश वे नेता थे, जिनके facebook अकाउंट विदेशी PR कंपनियां मेन्टेन करती है। उचक-उचक कर बोलने वाले ये नेतागण social मीडिया में अपनी छवि को चमकाने और ज्यादा से ज्यादा likes पाने के लिए ऐसी कंपनियों को करोड़ों रुपया देने से भी गुरेज नहीं करते।
कुल मिलाकर रसोई घर में केरोसिन के डिब्बे या रसोई गैस से आग फ़ैल सकती है पर आग लगने की शुरूआती वजह वो नहीं होते। वजह बहुत सी हो सकती है पर उसके लिए आप घर में केरोसिन या गैस सिलिंडर रखना बंद कर देते, यह तो समस्या का कोई समाधान ना हुआ। यहाँ समस्या की जड़ पर हम बात नहीं करेंगे, वह सही भी नहीं होगा, पर यह साफ़ है बच्चे से home work कराने से लेकर उसे शान्ति से बैठाने के लिए आप चोकलेट को हथियार की तरह इस्तेमाल करते रहे और फिर दांत ख़राब करने की जिम्मेदारी चोकलेट पर डाल दी आये, यह सही नहीं है। 

Sunday, September 22, 2013

दूध का Calcium

शहर भर की सारी माओं में होड़ लेगी है, बच्चों को सल्लू बनाने की, complan से लेकर bournvita, apple से लेकर अनार, बादाम से लेकर काजू तक ठूस रही है। सर्दी और गर्मी के लिए भी अलग-अलग चवनप्राश और ना जाने क्या क्या। बस ठूसो सारा दिन, पेट में थोड़ी भी जगह खाली ना रह जाए। आंटी जी यदि नौकरीपेशा हो तो ये जिम्मा बच्चे की आया पर आ जाता है। सुबह से शाम तक फ़ोन पर आँखों के तारे की diet और homework का हिसाब लेती रहती है। कुल मिलाकर सिर्फ पूर्ण शारीरिक विकास की चिंता। बस हो गयी जिम्मेवारी पूरी। 
बच्चा क्या पढ़ रहा है यह पता है पर क्या सीख रहा है, उसका कोई अंदाजा तक नहीं क्योंकि ना पापा को ना मम्मी को वक़्त है, उसे अच्छी बातें सीखाने का, सही गलत का फर्क बताने का। आखिर घर गाडी की EMI इतनी ही है की दोनों का नौकरी करना जरुरी है। थके हारे घर लौटे मम्मी पापा को बाल मन में उपजे लाखो सवालों का सामना ना करना पड़े इसलिए playstation या tablet पकड़ा दिया जाता है या फिर सेकड़ों कार्टून चैनल तो है ही। सोते वक़्त कहानिया सुनाने से पहले माएं पुछा करती थी आज तुमने स्कूल में मास्टर जी को परेशान तो नहीं किया ना ? उनका हर कहना माना ना ? पर आजकल उनका सवाल होता है किस टीचर ने मारा तुम्हे ? जरा नाम बताओ उसका ? अगले दिन प्रिंसिपल से शिकायत। बच्चे हेकड़ी में और बेचारा मास्टर डरा हुआ। बस पल गया राजा बेटा। 
शहर बाज़ार में किसी लड़की के साथ कुछ गलत होने के बाद हर चैनल पर बहस शुरू हो जाती है की मुल्क का एजुकेशन सिस्टम ख़राब है, स्कूलों में नैतिक शिक्षा दी जानी चाहिए। ये वो और ना जाने क्या क्या। पर क्या वाकई सारी जिम्मेदारी सिर्फ स्कूलों की होती है ? माँ बाप की कोई जिम्मेदारी नहीं। बच्चे के चरित्र की इमारत चाहे स्कूलों में खड़ी होती हो पर नींव घर पर तैयार होती है। सही और गलत में उस पर कौन हावी होगा ये उसकी नींव की मजबूती पर निर्भर करता है। माँ की शिक्षा और पिता की सीख यह निश्चित करते हैं की वह किस और अपने कदम बढाएगा। 
कुल मिलाकर बच्चे को Bournvita देने से शायद दूध का calcium waste नहीं होगा, पर यदि आपने उसे वक़्त ना दिया तो आपका उम्र भर का किया धरा सब waste जरुर हो जायेगा। फैसला आपका। 

Friday, September 20, 2013

आगे कुवां पीछे खायी

RBI गवर्नर रघुराम राजन की स्थिति उस बिहारी ग्रामीण महिला की तरह हो गयी है, जिसे उसका शहरी पति जीन्स टॉप में देखने की ख्वाहिश रखता है और सास-सासुर दो हाथ जितने घूंघट के पीछे। दोनों की इच्छाओं का सम्मान करते-करते बेचारी का हुलिया कुछ अजीब ही हो जाता है। अंत में लोकल जीन्स, टॉप, गले में लटकता काले बारीक मोतियों वाला मंगलसूत्र और मांग में मुट्ठी भर सिन्दूर, उसको मॉल बाजारों में घूमती तथाकथित मॉडर्न छोरियों में मजाक का विषय बना देता है। 

रघुराम के साथ भी कुछ यही हो रहा है, एक तरफ बुरे आर्थिक हालातों से जूझ रहा व्यापार जगत है, जो उनसे ब्याज दरों में कमी की उम्मीद लगाए बैठा था, दूसरी तरफ महंगाई की मार खा रही इस मुल्क की जनता जो इस महगाई से निजात दिलाने के लिए उन पर नज़रें गड़ाई बैठी है। जाए भी तो जाए कहाँ ? बस इसी बैलेंस का परिणाम था आज की दिशाहीन मौद्रिक नीति। आखिर बिना सही राजनैतिक नेतृत्व के RBI भी कितने दिन अर्थ्व्यस्वस्था को संभाल सकती है।

Wednesday, September 18, 2013

फ़ाइल ख़त्म पैसा हजम

कौन कमबख्त कहता है, की tension सिर्फ बड़ो को होता है, मेरा तो पूरा बचपन टेंशन में बीता है। स्कूल से आने से लेकर जाने तक सिर पर भारी बोझ, home work नहीं किया, आज तो मैडम पक्का मारेगी। बस इसी खौफ के चलते मैं हमेशा भगवान् से खुद को जल्द से जल्द बड़ा कर देने की प्रार्थना किया करता था। पर आप
तो जानते ही है भगवान् के घर करोड़ों अरबों अर्जियों का पहले ही अम्बार लगा हुआ है, मेरी अर्जी पर तो कहाँ उनकी निगाह जाती। दर्द बहुत है इस दुनिया में और भगवान् भी बड़े रिश्वतखोर है, बिना सवा किलो लड्डू के तो मंदिर की लाइन में भी सवा सेकंड खड़े नहीं रहने देते। जितना बड़ा डिब्बा आपके हाथ होगा उतना ही अधिक देर दर्शन का लाभ मिलेगा। भगवान की लीला भगवान जाने, चलिए फिर मेरे टेंशन पर आते है। तो कुल मिलकर इस होम वर्क अर्थात गृह कार्य ने मेरे जीवन की शांति छीन रखी थी। 
एक बार सातवी कक्षा में कुछ यूँ हुआ की साल भर मैंने इतिहास का होमवर्क किया ही नहीं, और ना जाने कैसे पर कभी पकडे भी नहीं गए। साल के अंत में वार्षिक परीक्षा से ठीक पहले एक कॉपी टेस्ट हुआ, इसमें साफ़ सुथरी खाकी कवर कॉपी, अच्छी लेखनी आदि के अंक मिला करते थे पर हम तो उस्ताद थे हमारा तो हर पन्ना ही साफ़ था दिखाते भी तो क्या ? बस मन घबराने लगा। लगा इस बार तो लुड़कना तय है, पिताजी के तमाचे और मैडम जी की स्केल का डर सताने लगा। हालत ऐसी की काटो तो खून नहीं। 
परीक्षा से एक दिन पहले एक खाली कॉपी को जितना भर सकते थे उतना भरा पर साल भर के काले कारनामों को एक दिन में धोया नहीं जा सकता। हिम्मत जवाब दे गयी, भगवान् का नाम लेकर स्कूल पहुचे। हर घंटे के साथ धडकनों की रफ़्तार बाद रही थी। इतिहास के पीरियड में मैडम जी क्लास में पहुची, एक-एक करके students को बुलाती गयी और कापियां देख लिस्ट में अंक लिखिती गयी। नाम A से था तो जल्द ही हमारा भी नंबर लग गया। ना जाने अचानक क्या हुआ, खाली हाथ ही मैडम के सामने जा कर खड़ा हो गया। बचपन में बड़े cute से हुआ करते थे हम तो मैडम जी ने भी बड़े
प्यार से कॉपी के बारे में पूछा और हमने रोते हुए जवाब दिया "मैडम कॉपी तो ना जाने कहाँ खो गयी, मिल ही नहीं रही।" मैडम ने चुप कराते हुए कहा कोई बात नहीं चुप हो जाओ दूसरी बना लेना। 
कुछ इसी तरह कोयला मंत्रालय से कोयला आवंटन की फाइलें गुम हो गयी हैं, आखिर लाखों करोड़ों के काले
कारनामों को छुपाने का इस से आसान तरीका और क्या होता। मेरी मैडम चाहे मेरा झूठ को ना पकड़
पायी हो पर मुझे इतना यकीन है, की सुप्रीम कोर्ट इन देश द्रोहियों को नहीं बक्शेगा।

Tuesday, September 17, 2013

2014 का शक्तिमान

जब में छोटा था, शायद छठी सातवी की बात रही होगी, तब रविवार को दूरदर्शन पर "शक्तिमान" नाम का एक धारावाहिक आया करता था। आप सब तो वाकिफ ही होंगे इस नाम से, आखिर वह पहला देसी सुपर हीरो जो था। सुपरमैन, हीमैन से लेकर स्पाइडरमैन जैसे होलीवूडिया महामानवों की जमात में Made in India शक्तिमान हमें अपना सा लगता था। हम बावलों की तरह उसके इंतज़ार में घडी की सुइयों की तरफ नज़र गडाए बैठे रहते थे। पिताजी भी इस मौके का फायदा उठाने से नहीं चुकते थे, शर्त लगा दी, homework पूरा करने पर ही टीवी चलेगा। हद्द है यार ये बड़े इतने वो क्यों होते है, पर फिर भी हम जैसे तैसे घसीटे मार मार कर होमवर्क पूरा कर ही लिया करते थे। फिर शक्तिमान uncle आते थे अपनी धुरी पर गोल-गोल घूम अँधेरा कायम नहीं होने देते थे।
कुछ episodes निकले की अखबारों में खबर आई की शक्तिमान देख किसी बच्चे ने बिल्डिंग से इस उम्मीद में छलांग लगा ली की उसे बचाने शक्तिमान आएगा पर ऐसा न हुआ और वह बचाया ना जा सका, इस तरह की कुछ ख़बरें और आई। विरोध का दौर शुरू हुआ और बाद में मुकेश खन्ना साहब मतलब शक्तिमान जी को खुद सामने आकर कहना पड़ा की भाई मैं भी आपकी तरह एक इंसान हूँ, मुझे भगवान् ना समझिये।
चलिए छोडिये वे तो बच्चे थे, पर इस मुल्क के बड़े बुजुर्गों को क्या हुआ है, जो इस तरह हाथ पर हाथ धरे किसी के आने की उम्मीद लगाए बैठे है। वे इस इंतज़ार में बैठे हैं की कोई आएगा और उनके सारे दुःख दर्दों को मिटा जाएगा। एक शहंशाह, एक महामानव जो इस सड़े-गले system को और इस मुल्क की किस्मत बदल डालेगा। एक ऐसा व्यक्ति जो संत्री से लेकर मंत्री तक सबको ईमानदार बना देगा। एक ऐसा सुपर हीरो जिसके खौफ से हर एक आतंकवादी थर्रा जाए, जिसके रहते पाकिस्तान को अपनी औकात याद आ जाये। बस यही ख्वाब लिए हर आम आदमी 2014 का इंतज़ार कर रहे है। ना मियाँ ना, पीठ पर चद्दर बांधे कोई हीरो नहीं आने वाला। ना उड़ कर ना घूम घूम कर।
जिन नरेन्द्र मोदी साहब की प्रतीक्षा में आप आँखें लगाए बैठे है, उनके हाथ में भी कोई जादू की छड़ी ना होगी, जो घुमाया और बदल गया देश, सुधर गयी इकॉनमी।
पर ऐसा नहीं की बदलाव नहीं आएगा, बदलेगा ये देश, ये मुल्क बदलेगा, बस जहां खड़े हो वहां सुधार लाओ। क्योंकि याद रखना 100 बेईमानों में से सिर्फ 1 नेता होता है, 99 हम और आप होते है।

Monday, September 16, 2013

राम, रहीम और कद्दू

बचपन में जब में बीमार होता था, बुखार या कुछ और होता तो मेरी प्यारी माँ मुझे बिना तेज़ मसालों की, बिलकुल फीकी सी लौकी की सब्जी, रोटी के साथ खिलाया करती। कभी कभी फीका कद्दू या तुरई भी। इसका असर कुछ ऐसा हुआ की वक़्त के साथ मुझे सब्जियां मुझे बीमारू सी लगने लगी। शाम भर खेलने के बाद घर में घुसते ही यदि यह पता लग जाए की रात के खाने में कद्दू-लौकी बने है तो भैया हम मुंह बना लिया करते थे। कुलमिलाकर मुझे इन सब्जियों से नफरत सी हो गयी थी।
शायद ये नफ़रत उम्र भर की दुश्मनी में बदल जाती यदि पिछले साल में गोवर्धन (मथुरा) ना गया होता। माँ की इच्छा पर हम गोवर्धन चल दिए, वैसे तो पूरा भारत ही अपने लजीज खाने के लिए जाना जाता है पर बृज भूमि के स्वाद का तो क्या कहना, मथुरा के प्रसिद्ध पेड़े से लेकर शुद्ध देसी घी की इमरती ने एक ओर जहां मेरे मुंह में मिठास घोल दी, वही कुल्हड़ वाली मखनिया लस्सी पी कर आत्मा तृप्त हो गयी। इतनी मीठा दबाने के बाद जब हमारी नज़र देसी घी में तली जा रही कचोरियों पर पड़ी तो खा-खा कर जवाब दे गए पेट में भी थोड़ी जगह बन ही गयी। इन कचोरियों को वहां की स्थानीय भाषा में बेडही भी कहा जाता है। हमे कचोरी आलू की गीली और कद्दू की सूखी सब्जी के साथ दी गयी। आलू की सब्जी तो बहुत खायी थी पर कद्दू को इतना लजीज कभी ना पाया था। जिंदगी में पहली बार नफ़रत प्यार में बदल गयी, हम उस कद्दू की सब्जी के चक्कर में 3 कचोरियाँ खा गए। मानो अमृत चख रहे हो।
बस ऐसा ही होता हैं, बचपन से हमे कुछ परोसा जाता है, एक विचार के रूप में, फिर धीरे-धीरे वही विचार हमारी सोच में तब्दील हो जाता है और फिर वही सोच हमारे सत्य में। कभी किसी हिन्दू के परिवार में मुस्लिमों से यारी दोस्ती ना करने की सीख दी गयी तो कभी किसी मुस्लिम के घर हिन्दुओं के खिलाफ ज़हर उगला गया। गीली मिटटी को जिसने जैसे चाहा ढाल दिया। एक पीड़ी का ज़हर दूसरी में चला गया, बस यही था विरासत में देने को।
पर हम तो आधुनिक विचारों से लबरेज़ होने का दावा ठोका करते थे, फिर आखिर कैसे उन ढोंगियों के बातों में आ गये। विज्ञान के युग में बिना प्रैक्टिकल किये किसी लफंदर की थ्योरी को सही मान बैठे। अमां छोडिये अक्ल में पत्थर पड़े हैं हमारी, भाषण बाजी से कुछ ना होगा। हाँ बस एक बार जरा उधर भी नज़र डाल लीजियेगा, इंसां ही बसते है वहां पर भी, हमारे आपके जैसे और वैसे भी जब तक दूसरी जगह के कद्दू का स्वाद ना चखोगे तब तक नफ़रत ख़त्म ना होगी।

Friday, September 13, 2013

एक युग की शुरुआत या एक युग का अंत

सुबह डिस्कवरी चैनल पर अफ्रीकन शेरों पर कार्यक्रम आ रहा था। शेर, यह वो शब्द है जो कमजोर दिलों में खौफ पैदा कर देता है। वीरता, दृडता और शौर्य का प्रतीक है यह अलफ़ाज़। बात जंगल के शेर की करें तो एक युवा ताकतवर शेर कुछ मादाओं और शावकों वाले झुण्ड का मुखिया तो होता ही है पर साथ ही जंगले के एक बहुत इलाके पर उसकी हुकूमत भी होती है।  इस पूरे इलाके में शिकार का हक केवल उसका होता है, मादाएं वंश वृद्धि और शावकों के पालन पोषण की जिम्मेवारी निभाती है। अपनी हुकूमत और झुण्ड की मादाओं पर अपना अधिकार खो जाने के भय से मुखिया, नर शावको को थोडा व्यस्क होते ही झुण्ड से बाहर खदेड़ देता है। वक़्त बदलता है, वक़्त के साथ शेर बुढा हो जाता है, रोगों से ग्रस्त, असहाय और निर्बल। झुण्ड के खदेड़े हुए नर अब फुर्तीले और ज्यादा ताकतवर हो गए होते है, झुण्ड और मादाओं पर अधिकार पाने को वे आतुर होते है, वयस्कों का सबसे शक्तिशाली नर मुखिया को चुनौती देता है। वृद्ध शेर हार नहीं मानता, वह तेज़ दहाड़ के साथ चुनौती को स्वीकार करता है। घमासान युद्ध होता है और जो पहले से निश्चित था वही होता है, व्यस्क के मजबूत पंजे और जबड़े वृद्ध शेर के शरीर में कई जगह घाव कर देते है, उसके पिछले पैर की हड्डी तक टूट जाती है। लहुलुहान वृद्ध घसीटता हुआ झुण्ड से कहीं दूर एकांत में चला जाता है और भोजन के अभाव में एकांत मृत्यु प्राप्त करता है। इसी के साथ एक युग की समाप्ति हो जाती है। शायद वह कुछ और समय जीवित रह पाता यदि बदलाव को स्वीकार कर लेता। यही नियम है।
BJP में Narendra Modi की ताजपोशी और अडवाणी युग का अंत भी कुछ इसी तरह हुआ है। 

Monday, September 9, 2013

हिन्दू का बेटा, मुसलमान की औलाद

रसायन विज्ञान के छात्र उत्प्रेरक (catalyst) नाम के पदार्थ से भली भांति परिचित होंगे, यह वह पदार्थ होता है जो किसी भी तत्वों की आपसी अभिक्रिया (Reaction) की गति को और अधिक तीव्र कर देता है पर साथ ही पूरी रिएक्शन के दौरान वह खुद जस का तस बना रहता है। रिएक्शन तो उसके बिना भी पूर्ण हो जाती परन्तु उसकी उपस्तिथि उसे और अधिक वेग प्रदान करती है। 
अब आप सोच रहे होंगे की इन महाशय को अचानक chemistry से इतना लगाव कैसे हो गया, नहीं मित्रो बात यहाँ रसायन की नहीं मुल्क की है। इस मुल्क में भी कुछ ऐसा ही हो रहा है। UP के मुजफ्फरनगर में एक लड़की को किसी मनचले ने छेड़ दिया, Reaction होना तो स्वाभाविक था ही, पर मौके का फायदा उठा कुछ नेतागण catalyst बन बैठे, और नतीजा यह की जो बात एक-दो लौंडों की पिटाई के साथ ख़त्म हो जाती, इनकी भड़काऊ और उत्तेजक बयानबाजी ने पूरे मुजफ्फरनगर में आग लगा दी। खून बहा, किसी का लड़का तो किसी का पति इन मौका परस्तों के घटिया मंसूबों की भेंट चढ़ गया। 
ऐसी घटनाएं होनी भी थी, उम्मीद भी की जा रही थी इनकी, आखिर 2014 की तैयारियां जो शुरू हो चुकी है। वैसे भी वोटों के मामले में उत्तर प्रदेश दुधारू गाय की तरह है, जिसके आँगन में खड़ी होगी उसी के यहाँ लोकसभा सीटों की गंगा बहेगी और हर एक राजनैतिक दल अपने तरीके से इन वोटों को बटोरने की फिराक में है। हिन्दू-मुस्लिम तनाव की वजह से होने वाले वोटों के ध्रुवीकरण से कुछ दल वोट बैंक के एक तरफ़ा हो जाने के सपने सजाये बैठे हैं और हम उनकी चाल का हिस्सा बन जाते है। 
स्वीकार कर लीजिये हम मुर्ख थे, मुर्ख है और सदा मुर्ख ही रहेंगे, कोई चार बातें बोलता है और हम मरने मारने पर उतारू हो जाते है, खून के प्यासे हो जाते हैं, दरिन्दे बन जाते हैं। फिर क्यों कोसते है हम उन आतंकवादियों को, उनको भी किसी ने बरगलाया होगा। चार पांच विडियो दिखा उनका दिमाग फेर दिया होगा। कोई ख़ास अंतर नहीं है हम में और उनमें बस फर्क है की वे दूसरे मुल्क से आते है। हम कठपुतलियाँ बन जाते हैं चंद शैतानों की, जो हमे अपने इशारों पर नचा कर अपने नापाक मंसूबों को पूरा करतें हैं।     
याद रखना सुरेश मरे या सुहैल, बेटा माँ का जाता है, बाकी किसी को फर्क नहीं पड़ता।  

Sunday, September 8, 2013

मुफ्त का चन्दन, घिस मेरे नंदन

बचपन में पिताजी हमें exam में पहली श्रेणी लाने के लिए कभी नई साइकिल, कभी किसी और इनाम का प्रलोभन दिया करते थे, हम जोश में खूब मेहनत किया करते थे और उसे हासिल करने की कोशिश करते थे, बात यहाँ केवल परीक्षा में अंक लाने तक सीमित नहीं है हम बात कर रहे है प्रयास की, आगे बढ़ने की कोशिश की, कुछ पाने की चाहत की, किसी लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए पूरी शिद्दत से जुट जाने की। हर कोई अपने जीवन में कुछ पाना चाहता है, किसी शिखर को छू जाना चाहता है, इसके लिए वो जी तोड़ मेहनत भी करता है। पर क्या हो जब सब कुछ बिना मेहनत मिलने लगे, कुछ पाने की चाहत करे और मिल जाए, सपना देखे और पूरा हो जाए। बस फिर क्या है आराम की जिंदगी, पत्ता भी कौन हिलाएगा ?

यही आज हो रहा है, राजनैतिक पार्टियों में होड़ लगी है मुफ्त का सामान बांटने की, गेहूं-चावल से लेकर, टेबलेट, लैपटॉप, मोबाइल, साइकिल, बिजली तक सब कुछ बांटा जा रहा है सरकारी खजाने के मुंह खोल दिए गए है। वोट पाने की चाहत में जनता के मुंह में नोट तक ठूसे जा रहे है। नरेगा में नाम लिखा दीजिये, सरपंच अपना हिस्सा काट बाकी रकम आपके घर पहुंचा देगा।

जिस मुल्क का प्रधानमंत्री, अर्थशास्त्र का सचिन तेंदुलकर माना जाता है, उस मुल्क की ऐसी दुर्गति देख बड़ा दुःख होता है। जहाँ नीतियां बननी चाहिए, लोगों को स्वावलंबी और आत्म निर्भर बनाने की वहां उन्हें भिखारी बनाया जा रहा है। खैरात की जिंदगी जीने की आदत डाली जा रही है। जी भर कर बच्चे पैदा करें, सरकार है ना खाना खिलाने के लिए, हाँ बस उनकी पार्टी को वोट देते रहे।

क्या इस तरह चलेगा ये मुल्क ? एक ओर जहां हम आर्थिक मंदी की कगार पर हैं वहीं दूसरी ओर वोट बैंक की खातिर एक के बाद एक लाखों करोड़ रूपये की खैरातें बांटी जा रही है। वित्तीय घाटा बढ़ रहा है, रुपया औंधे मुंह गिर रहा है, देश की सुरक्षा के लिए हथियार और गोला-बारूद खरीदने के लिए पैसे नहीं, पर गरीबों को मोबाइल बांटने की तैयारी चल रही है। विकास के विज्ञापनों में सालों से दिल्ली मेट्रो और एक दो हवाई अड्डों के फोटो चस्पा कर वाहवाही बटोरने की कोशिश होती है। कुल मिलाकर मुल्क का बंटाधार हो रहा है फिर भी भारत निर्माण हो रहा है। 

ये कैसी सहनशीलता

मेरी कक्षा में कुछ बदमाश लड़के थे, जो अपनी शैतानियों और नाफरमानियों  की वजह से स्कूल भर में कुख्यात थे। कभी किसी से लड़ाई तो कभी किसी की पिटाई, यही उनका daily routine था। टीचर भी ज्यादा कुछ कहते नहीं थे, कहेंगे भी कैसे ? उनमें से एक शहर के MLA का लौंडा था, दूसरा किसी बड़े ट्रांसपोर्टर की औलाद। कुल मिलाकर इन छोरों ने हर किसी की नाक में दम कर रखा था।

एक लड़का और भी था, शांत, स्थिर, ना ज्यादा बोलता था ना कुछ कहता था। अपनी ही दुनिया में मस्त। ना जाने कैसे वो उन बदमाशों के निशाने पर आ गया, पहले पहल तो वे सिर्फ उसका मजाक बनाते, कुछ उल्टा सीधा बोल निकल जाते पर वह चुप रहता, कुछ नहीं बोलता। धीरे-धीरे उसकी चुप्पी ने उनको बढावा दिया, उनकी हिम्मत खुली, एक दिन उनमें से किसी एक ने उसे क्लास में धक्का दे कर गिराने की कोशिश की, वह लड़खड़ा कर गिर गया। कक्षा में सन्नाटा छा गया, लड़कियां एक कोने में सिमट गयी, बाकी लड़के देश के आम आदमी की तरह तमाशा देखने में लग गए, वे वही कर रहे थे जो पितामाह ने द्रौपदी के चीहरण के वक़्त किया था और हमेशा से यही तो होता आया है, चंद दुर्जन, सज्जनों पर जुल्म करते है, सेकड़ों निगाहें चुपचाप उस जुल्म की साक्षी बनती है और तमाशा देख निकल जाती है और आखिर हमारे घर के बड़े बूढ़े भी यही सीखाते हैं ना, बेटा दूसरों के फटे में टांग ना अड़ाना, बस मुंह फेर कर निकल आना। छोडिये इन बातों को बात करते है उस लड़के की, वह शान्ति से खड़ा हुआ, वो नालायक ठहाके लगा रहे थे, जैसे कोई वीरता का काम किया हो। लड़का आगे बढ़ा, MLA के कपूत के सामने जा कर खड़ा हुआ और एक जोर का तमाचा उसके गाल पर जड़ दिया, लौंडे हिल गए, गुस्से में लाल पीले दोनों उस पर टूट पड़े पर हमारे hero ने भी अचानक Bruce lee का अवतार ले लिया, दोनों की जमकर पिटाई करी, बाद में पता चला Hero करते में black belt था। दोनों कुछ दिन तक स्कूल में दिखाई नहीं दिए बाद में आए तो कभी उसकी तरफ आँख उठाकर भी ना देखा।

यही होता है लोग हमारी चुप्पी को जल्द ही हमारी कायरता समझ लेते थे। पर कोई गुस्ताखी करता जाए और हम सहनशीलता की मूर्ति बने सहते रहे यह भी कोई महानता तो नहीं। एक वक़्त आता है जब जवाब जरूरी बन आता है, प्रितिरोध करना पड़ता है अपनी शक्ति अपनी समझ से सामना करना पड़ता है।  बतलाना पड़ता है की बस अब और नहीं, यह गलत है।

पर ऐसा हो नहीं रहा, मुल्क के तौर पर हमारी सहनशीलता अब कायरता से नज़र आ रही है।  चीन की गुस्ताखियाँ दिन ब दिन बढती ही जा रही है पर हम चुप है। वे हमारी सीमा में आकर बैठ गए और हम उनसे वापस जाने की भीख मांगते रहे, आखिरकार अपनी ही एक चौकी छोडनी पड़ी। वे रुके नहीं, फिर आये रोज़ आ रहे है कभी लद्दाख में तो कभी अरुणांचल में पर हमारी सरकार हर बार इसे ठन्डे बस्ते में डालने की कोशिश करती रही, जाहिर सी बात है, सरकार इस मामले को तूल देकर बढ़ाना नहीं चाहती पर आखिर कब तक ? 1962 में भी यही हुआ था हम गला फाड़ फाड़ हिंदी चीनी भाई भाई के नारे लगा रहे थे और उधर चीन पीठ में छुरा घोपने के लिए छुरे की धार तेज़ करने में लगा था। कुछ नहीं बदला आज भी हमारे पास हथियार गोला बारूद और संसाधनों की कमी है। बॉर्डर तक जाने लिए पक्की सड़के तक नहीं।  और चीन ये बात बखूबी जानता है।  ऐसा नहीं की चीन लड़ने के मूड में है पर ऐसी हिमाकत कर वह एशिया में अपने वर्चस्व को बढ़ाना चाहता है और दक्षिण चीन सागर में तेल की खोज करने से भारत को रोकना चाहता है। चीन के इस कूटनैतिक चक्रव्युह्ह को यदि समय रहते न समझा गया तो बातों बातों में हमारी जमीन का एक बड़ा भाग चीन के नक़्शे में चला जाएगा।
बेहतर होगा की हम वक़्त रहते जाग जाए।

हिन्दू या सेक्युलर

बड़ा मुश्किल निर्णय है किस राह को अपनाऊं ? जन्म से में एक हिन्दू हूँ, हमारे कुछ रीति रिवाज, कुछ मान्यताएं हैं, एक पूरी सभ्यता है, जिसे बनाये रखना है। गंगा जमुना के घाटों पर हो रही आरतियाँ, वो मंदिर की घंटियों की स्वर लहरियां, पाठ-पूजा, मंत्रोचारण, कर्म काण्ड मेरे जीवन का संगीत है। राम का जीवन मेरी प्रेरणा है तो कृष्ण की गीता मेरी मार्ग दर्शक ।

दूसरी तरफ है सर्व धर्म समभाव की वो सोच है जो मुझे सभी धर्म जातियों का सम्मान करना सीखाती है मुझे जाति धर्म के भेद से ऊपर उठकर इंसान और इंसानियत का पाठ पढ़ाती है।

पर संशय यही से शुरू होता है, सेक्युलर सोच जहां मुझे सहिष्णु बनाती है वहीँ अत्यधिक सहिष्णुता मेरी संस्कृति के लिए घातक हो रही है। कोई आया थोड़ी जगह मांगी फिर पसर गया पर मैं कुछ ना बोला, मेरे ही चार दीवारी को तोड़ अपना आशियाना बना लिया, फिर भी मैं चुप रहा, अब मेरी ही जमीं पर मेरे अस्तित्व पर प्रश्न कर रहा है।

बात राम मंदिर की नहीं है बात अस्तित्व की है राम मंदिर तो एक प्रतीक मात्र है। मैं किसी धर्म का विरोधी नहीं हूँ पर याहन प्रश्न मेरे अस्तित्व का है। मैं तक तक सेक्युलर हूँ जब तक मेरे हिंदुत्व पर आंच नहीं आती।

मैं एक सेक्युलर हिन्दू हूँ

Friday, September 6, 2013

Mercedes वाले बाबा

बाबाओं की भीड़ लगी है, केदारनाथ से सोमनाथ तक, मथुरा से काशी तक हर तरफ बाबा ही बाबा। कुछ गेरुए रंग में ढके तो कुछ सफ़ेद सफ़ेद रंग ओढे।  किसी के पीछे चेले चपाटों की भीड़ तो कुछ भीड़ से दूर कहीं एकांत में ना जाने क्या खोज रहे हैं। कुछ प्राइवेट tution टीचर की तरह धर्म का अजब गजब ज्ञान बांटने की fees वसूलने में लगे हैं तो कुछ free service भी दे रहे है। पर असल बात तो ये है हम भी बड़ी दूकान देख कर ही माल खरीदते हैं। वेद पुराण लिखने वाले author कब के निकल लिए पर उनमें छिपे सत्य से हमारा साक्षात्कार कराने का जिम्मा अब इन्ही tutor बाबाओं ने अपने कंधे पर ले लिया है। धर्म का पूरा बाज़ार सजा हुआ है, अलग-अलग तरह की दुकाने जहाँ आपकी हैसियत के हिसाब से ईश्वर की कृपा नसीब होती है। कोई हरी चटनी के साथ समोसा खिला कर कृपा बाँट रहा है, तो कोई सफ़ेद कपडे पहन नाच-नाच कर जीवन जीने की कला सीखा रहा है। पर इन सबमें कुछ बातें कॉमन है सब के सब आलिशान बंगलों में रहते है, महंगी गाड़ियों में घूमते हैं, करोड़ों अरबों के आश्रमों के मालिक हैं।  Internet पर इनकी वेबसाइट होती है facebook और twitter पर इनके अकाउंट और लाखों करोड़ों की तादाद में followers, जो सुबह उठ कर भगवान् के आगे मत्था झुकाने से पहले इनके updates पढ़ते हैं। कईयों की मार्केटिंग में तो IIM ग्रेजुएट्स भी लगे है, जो event मैनेजमेंट से लेकर इनकी image मैनेजमेंट तक का सारा काम देखते हैं।  इनमें से कईयों ने अपने बेटा बेटियों को भी फॅमिली बिज़नस का हिस्सा बना उनका career भी सेट कर दिया है।
इनकी दूकान चल रही है और सब कुछ जानते बुझते हम चला रहे है। ऐसा नहीं की हम बेवकूफ या नादान है या हमे कुछ पता नहीं है पर हम सताए हुए है, दुखी है, निराश है, दर्द कूट कूट कर भरा है, हम में, विश्वास हिल सा जाता है और पहुँच जाते है दुखों की दवा तलाशते हुए और फिर हमारी समझ पर हमारा दर्द हावी हो जाता है, ये बोलते हैं हम सुनते है और धीरे धीरे इन्हें देवदूत मान पूजने लगते है। ये इंसान से खुदा बन जाते है और हम असली खुदा को ही भूल जाते है। दुःख और तकलीफें तो वहीं की वहीं रह जाती हैं।
हमे समझना होगा थोडा विचारना होगा की बड़े-बड़े पांडाल सजा कर एंट्री फीस लगा कर मोक्ष का अजीब मार्ग दिखाने वाले ऐसे ढोंगी लोग ईश्वर नहीं है ना ही सच्चे गुरु क्योंकि जो ज्ञानी है, संत हैं, महात्मा है, वे तो लोभ मोह की इस दुनिया से दूर हैं, वे आपको पांच सितारा पंडालों वाले इन गुरु घंटालों की जमात में नहीं मिलेंगे।
गुरु तो वो है जो ईश्वर का मार्ग दिखाए ना की वो जो खुद को ईश्वर बताये।
कबीरदास ने कहा है ….
गुरु गोविंद दोनों खड़े, काके लागूं पाँय ।
बलिहारी गुरु आपनो, गोविंद दियो मिलाय ॥

Tuesday, April 2, 2013

मेरा गाँव मेरा देश

हमारा मोहल्ला कुछ अलग ना था, हर तरह के लोग और हर तरह के मकान, कुछ शानदार रंग-रोगन वाले जेंटलमैन मकान जिनके बाहर खड़ी मारुती 800 उनकी शान में चार चाँद लगाती थी तो कुछ गरीब बदहाल मकान, जिनकी मैली दीवारें किसी लुटे पिटे आशिक की याद दिला देती थी खड्डेदार सड़कें जिन पर दुपहिया चलना किसी विडियो गेम के तीसरे लेवल को पार करने जैसा होता था वहीँ प्लास्टिक की थेलियों से अटी पड़ी नालियों से सड़क पर बहता पानी देख कोई नहीं कह सकता था की इस मोहल्ले में दो दिन में एक बार एक घंटे के लिए नल देवता पानी की वर्षा करते है शाम होते ही इन्ही सड़कों पर ईंटे लगा कर मोहल्ले के बच्चे क्रिकेट भी खेल लिया करते थे


मोहल्ला पुराना था इसलिए लगभग हर प्लाट पर मकान खड़ा था सिवाय एक कार्नर वाले प्लाट के, जिसे बरसों पहले उसके मालिक ने सिर्फ उसकी चारदीवारी बना कर छोड़ दिया था फिर ना मालिक दिखा ना कोई खेर खबर रखने वाला वक़्त के साथ चारदीवारी जगह-जगह से टूट गयी थी पहले कुछ दिन पडोसी शर्म खाते थे पर जल्द ही उनकी शर्म की बाड़ टूट गयी पहले किसी एक ने और फिर सभी आसपास वालों ने उस प्लाट पर कचरा कूड़ा करकट फेकना शुरू कर दिया कुछ ही महीनों में वह जमीन बड़े साइज़ के कचरे के डिब्बे में तब्दील हो चुकी थी गन्दगी बढ़ी तो चूहे आये, बहुत सारे चूहे, कुत्ते कुत्तियों ने वहां अपना परिवार बढ़ाना शुरू कर दिया एक बार तो अपनी गेंद उठाने गए एक बच्चे को कुत्ते ने काट भी लिया था बच्चों ने वहां खेलना छोड़ दिया, खेलने के लिए दूर किसी जगह जाने लगे एक तरफ कुत्ते तो दूसरी तरफ चूहों ने अपने कारनामों से हडकंप मचा रखा था घरों में अब कुछ भी सुरक्षित नहीं था बच्चों के किताबों से लेकर घर के गद्दे तकियों तक में चूहों ने सुराख कर दिए थे चूहा मारने वाली दवाओं की बिक्री बढ रही थी पर एक मरता था तो दस ना जाने कहाँ से आ जाते थे पर वहां कचरा डालना बदुस्तूर जारी रहा कचरे की बदबू दिन ब दिन बढती ही जा रही थी रास्ते से गुजरने वाले हर शख्स को अब नाक पर रुमाल रखना पड़ रहा था भयानक दुर्गन्ध ने जीना मुश्किल कर दिया था लोग अब अपने घरों के दरवाजे खिड़कियाँ बंद रखा करते थे जल्द ही
बारिशें शुरू हो गयी पानी और कचरे के मिलन ने मच्छरों को जन्म दिया और मच्छरों ने फॅमिली प्लानिंग के सभी उपदेशों को दरकिनार करते हुए अपनी जमात को चारों और फैला दिया मच्छरों ने बीमारियों की आसपास के हर घर में होम डिलीवरी करना शुरू कर दिया, बच्चे हो या बुजुर्ग कोई मलेरिया की तो कोई किसी अन्य बिमारी की चपेट में आने लगे लोग परेशान थे समझ नहीं पा रहे थे की क्या करे

फिर एक दिन मोहल्ले के ही एक बुजुर्ग जिन्हें बैंक की अपनी नौकरी से रिटायर हुए दस साल बीत चुके थे ने आस पास के लोगो को बुला कर समझाया और कचरा हटवा उस प्लाट की सफाई करवाने के लिए राज़ी किया कचरा हटवाया गया, साफ़ सफाई भी हुई नगर निगम में अर्जी देकर बड़े कचरे की डिब्बे हर नुक्कड़ पर लगवाये गए धीरे-धीरे बदलाव आया मच्छर और चूहों को नगर निगम की दवाइयों ने मारा और कुत्तों ने परिवार सहित कहीं दूर चले जाना ही बेहतर समझा अब सब खुश थे और मन ही मन उस बुजुर्ग को धन्यवाद दे रहे थे

बात छोटी सी है मगर बहुत काम की हमारा समाज, देश हो या विश्व सब उस मोहल्ले की तरह है हम अकेले प्रगति कर, दूसरों को पीछे असहाय बदहाल छोड़ उस प्रगति का पूरा मज़ा नहीं ले सकते फिर चाहे समाज हो या देश भूखा बेबस आदमी गलत रास्ते अपनाएगा अराजकता बढेगी अपराध बढेंगे वहीँ दूसरी तरफ वैश्विक स्तर की बात करें तो गरीब पिछड़े देश आतंकवादियों और कट्टरपंथियों की कारखाने बन जाते है इतिहास गवाह है की अत्यधिक पीड़ित व्यक्ति और समाज तबाही की वजह बनता है कुल मिलाकर कहा जाए तो एकल विकास के कोई मायने नहीं है सम्पूर्ण विकास के लिए सभी की खुशहाली बेहद जरूरी है समाज और देश की प्रगति में अपनी भागीदारी निभाये अपना टैक्स भरकर और किसी सामाजिक संस्था से जुड़कर जरुरतमंदों की मदद के लिए आगे आये

Saturday, January 19, 2013

जिम्मेदार कौन ?

पिछले दिनों दिल्ली में हुए बलात्कार काण्ड ने इस मुल्क के हर बाशिंदे की रूह को झकझोर कर रख दिया, समाज के हर वर्ग के लोगों से लेकर राजनैतिक हल्कों में महिलाओं के प्रति हो रहे अपराधों की रोकथाम के लिए कड़े कदम उठाने की मांग जोर पकड़ने लगी हर कोई इस काण्ड की बर्बरता देख सकते में है जहाँ एक ओर इस जघन्य अपराध ने इंसानियत को शर्मसार किया वहीं दूसरी ओर इसने समाज के समक्ष कई सवाल खड़े कर दिए आखिरकार इस अपराध के लिए जिम्मेदार कौन है ? क्या वे छह जने जिन्होंने इस अपराध को अंजाम दिया या वो पुलिस जिस पर किंकर्तव्यविमूढ होने का आरोप लगा सारा ठीकरा फोड़ा जा रहा है हकीकत इसके उलट है असल में इस तथाकथित सभ्य समाज के भय ने महिलाओं को आसान शिकार और हमारे शहरों को अपराधियों का आखेट स्थल बना दिया है 

कहीं भी चले जाइये आम माध्यम वर्गीय आदमी इस भुलावे में जीता है की बुद्धू बक्से की ख़बरों में दिखाई जाने वाली घटनाएं जिन अभागों के साथ होती हैं वे अलग ही होते है ऐसा कुछ उसके साथ कभी नहीं हो सकता वह तो धार्मिक है और ईश्वर में पूरी आस्था रखता है नित्य भगवान् का नाम जपना और पूजा करना भी नहीं भूलता तो निश्चित रूप से ऐसा कोई वाक्या उसके साथ तो हो ही नहीं सकता ईश्वर इतना निष्ठुर नहीं है पर हम भूल जाते हैं की दरिंदगी के शिकार हुए वो बदकिस्मत लोग परग्रही नहीं होते वे इसी दुनिया का हिस्सा होते है हमारी यही सोच अपराध का शिकार हुए व्यक्तियों को समाज से अलग थलग कर देती है वे या तो सामाजिक उपेक्षा के डर से आवाज़ नहीं उठाते या लम्बी कानूनी लड़ाई के बीच ही मानसिक यातनाओं से हिम्मत हार जाते हैं हमारी उपेक्षा उनके दर्द को कई गुना बड़ा देती है  

ऐसी घटनाओं की कमी नहीं है जब अपराध को होता हुआ देख भी सेकड़ों की भीड़ मौन बनी रही समाज की यह मौन स्वीकृति अपराधियों का मनोबल बढाती है अपराधियों का विरोध करना तो दूर की बात हम तो घायलों की मदद को भी आगे नहीं बढ़ते और अपने बच्चों को भी ऐसे झमेलों से दूर रहने की सलाह दे डालते है समाज एकजुट हो अपराध की खिलाफत को उतर जाए तो किसी महिला पर बुरी नज़र डालना तो दूर की बात कोई बदमाश किसी बच्चे का खिलौना नहीं छीन सकता 

निर्भया को उन छह जनों ने मारा है तो उसकी मौत के लिए वे तमाशबीन भी जिम्मेदार थे जो सड़क पर पड़ी उस असहाय बच्ची को देखते रहे पर किसी ने भी उसे वक़्त रहते अस्पताल ले जाने की जेहमत नहीं उठायी हज़ारों हाथों ने मोमबत्तियां जलाई पर एक हाथ उसकी मदद को आगे नहीं आया ये इस समाज की त्रासदी है ये होता आया है और आगे भी होता रहेगा जब तक आप और हम जैसे लोग अपना मौन नहीं तोड़ते जुर्म की खिलाफत नहीं करते और दर्द झेल रहे उस इंसान के साथ खड़े नहीं होते क्योंकि याद रखिये किसी नास्त्रेदमस ने यह भविष्यवाणी नहीं करी की ऐसा आपके साथ नहीं हो सकता