Sunday, September 8, 2013

ये कैसी सहनशीलता

मेरी कक्षा में कुछ बदमाश लड़के थे, जो अपनी शैतानियों और नाफरमानियों  की वजह से स्कूल भर में कुख्यात थे। कभी किसी से लड़ाई तो कभी किसी की पिटाई, यही उनका daily routine था। टीचर भी ज्यादा कुछ कहते नहीं थे, कहेंगे भी कैसे ? उनमें से एक शहर के MLA का लौंडा था, दूसरा किसी बड़े ट्रांसपोर्टर की औलाद। कुल मिलाकर इन छोरों ने हर किसी की नाक में दम कर रखा था।

एक लड़का और भी था, शांत, स्थिर, ना ज्यादा बोलता था ना कुछ कहता था। अपनी ही दुनिया में मस्त। ना जाने कैसे वो उन बदमाशों के निशाने पर आ गया, पहले पहल तो वे सिर्फ उसका मजाक बनाते, कुछ उल्टा सीधा बोल निकल जाते पर वह चुप रहता, कुछ नहीं बोलता। धीरे-धीरे उसकी चुप्पी ने उनको बढावा दिया, उनकी हिम्मत खुली, एक दिन उनमें से किसी एक ने उसे क्लास में धक्का दे कर गिराने की कोशिश की, वह लड़खड़ा कर गिर गया। कक्षा में सन्नाटा छा गया, लड़कियां एक कोने में सिमट गयी, बाकी लड़के देश के आम आदमी की तरह तमाशा देखने में लग गए, वे वही कर रहे थे जो पितामाह ने द्रौपदी के चीहरण के वक़्त किया था और हमेशा से यही तो होता आया है, चंद दुर्जन, सज्जनों पर जुल्म करते है, सेकड़ों निगाहें चुपचाप उस जुल्म की साक्षी बनती है और तमाशा देख निकल जाती है और आखिर हमारे घर के बड़े बूढ़े भी यही सीखाते हैं ना, बेटा दूसरों के फटे में टांग ना अड़ाना, बस मुंह फेर कर निकल आना। छोडिये इन बातों को बात करते है उस लड़के की, वह शान्ति से खड़ा हुआ, वो नालायक ठहाके लगा रहे थे, जैसे कोई वीरता का काम किया हो। लड़का आगे बढ़ा, MLA के कपूत के सामने जा कर खड़ा हुआ और एक जोर का तमाचा उसके गाल पर जड़ दिया, लौंडे हिल गए, गुस्से में लाल पीले दोनों उस पर टूट पड़े पर हमारे hero ने भी अचानक Bruce lee का अवतार ले लिया, दोनों की जमकर पिटाई करी, बाद में पता चला Hero करते में black belt था। दोनों कुछ दिन तक स्कूल में दिखाई नहीं दिए बाद में आए तो कभी उसकी तरफ आँख उठाकर भी ना देखा।

यही होता है लोग हमारी चुप्पी को जल्द ही हमारी कायरता समझ लेते थे। पर कोई गुस्ताखी करता जाए और हम सहनशीलता की मूर्ति बने सहते रहे यह भी कोई महानता तो नहीं। एक वक़्त आता है जब जवाब जरूरी बन आता है, प्रितिरोध करना पड़ता है अपनी शक्ति अपनी समझ से सामना करना पड़ता है।  बतलाना पड़ता है की बस अब और नहीं, यह गलत है।

पर ऐसा हो नहीं रहा, मुल्क के तौर पर हमारी सहनशीलता अब कायरता से नज़र आ रही है।  चीन की गुस्ताखियाँ दिन ब दिन बढती ही जा रही है पर हम चुप है। वे हमारी सीमा में आकर बैठ गए और हम उनसे वापस जाने की भीख मांगते रहे, आखिरकार अपनी ही एक चौकी छोडनी पड़ी। वे रुके नहीं, फिर आये रोज़ आ रहे है कभी लद्दाख में तो कभी अरुणांचल में पर हमारी सरकार हर बार इसे ठन्डे बस्ते में डालने की कोशिश करती रही, जाहिर सी बात है, सरकार इस मामले को तूल देकर बढ़ाना नहीं चाहती पर आखिर कब तक ? 1962 में भी यही हुआ था हम गला फाड़ फाड़ हिंदी चीनी भाई भाई के नारे लगा रहे थे और उधर चीन पीठ में छुरा घोपने के लिए छुरे की धार तेज़ करने में लगा था। कुछ नहीं बदला आज भी हमारे पास हथियार गोला बारूद और संसाधनों की कमी है। बॉर्डर तक जाने लिए पक्की सड़के तक नहीं।  और चीन ये बात बखूबी जानता है।  ऐसा नहीं की चीन लड़ने के मूड में है पर ऐसी हिमाकत कर वह एशिया में अपने वर्चस्व को बढ़ाना चाहता है और दक्षिण चीन सागर में तेल की खोज करने से भारत को रोकना चाहता है। चीन के इस कूटनैतिक चक्रव्युह्ह को यदि समय रहते न समझा गया तो बातों बातों में हमारी जमीन का एक बड़ा भाग चीन के नक़्शे में चला जाएगा।
बेहतर होगा की हम वक़्त रहते जाग जाए।

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