Friday, November 23, 2012

कलयुगी रावण


तारीख 21 नवम्बर 
साल 2012 
बुधवार तडके लगभग 5 बजे हर खबरिया चैनेल पर कसाब को लेकर ख़बरें फ़्लैश होने लगी, घोटालों के इस दौर में अचानक सभी समाचार माध्यमों पर कसाब की ख़बरों की बाढ़ आ गयी , हर न्यूज़  चैनल पर उसकी मौत की तारीख को लेकर कयास लगाये जाने लगे आखिरकार लगभग 8 बजे ये खबर सामने आई की अजमल आमिर कसाब को पुणे की यरवदा जेल में सुबह करीब 7:30 पर फांसी दे दी गयी है

खबर आते है प्रतिक्रियाओं का दौर शुरू हो गया जहाँ एक ओर सरकार के मंत्री खुद की पीठ थपथपाते नज़र आ रहे थे वही दूसरी ओर विपक्षी दल इस कार्यवाही के लिए उनके द्वारा बनाये गए दबाव को जिम्मेदार ठहरा रहे थे  इन्टरनेट पर कसाब से जुड़ी प्रतिक्रियाओं और लतीफों का अम्बार लग गया आम जनता की ख़ुशी का तो ठिकाना न था मानो युगों पश्चात एक बार फिर रावण का अंत हुआ हो कुछ लोगों को इसमें सरकारी षड़यंत्र की बू आ रही थी कुछ कह रहे थे की कसाब की मौत के लिए डेंगू का मच्छर जिम्मेवार है सरकार तो बेवजह बेचारे देशभक्त मच्छर के काम का श्रेय ले रही है दूसरी तरफ मानवाधिकार संगठनो ने फांसी की सजा को अमानवीय बताया उनके अनुसार एक सभ्य समाज में ऐसी सजा का प्रावधान नहीं होना चाहिए कुछ तो यहाँ तक भी कहने से नहीं चूक रहे है की कसाब मरा ही नहीं है क्योंकि सरकार ने अधिकारिक तौर पर कोई प्रमाण प्रस्तुत नहीं किया,

जितने मुंह उतनी बातें, एक बड़बोला मुंह हमारे माननीय गृहमंत्री का भी है जिनके अनुसार कसाब की फांसी के बारे में पाकिस्तान को पूर्व जानकारी दे दी गयी थी पर हमारे राष्ट्राध्यक्ष डॉ. मनमोहन सिंह को इस बात की जानकारी नहीं थी सच में हास्यास्पद है

परन्तु बड़ा प्रश्न यह है की इस कलयुगी रावण अजमल आमिर कसाब की मौत से इस मुल्क को क्या हासिल हुआ क्या आज के बाद इस मुल्क में कभी कोई आतंकवादी घटना नहीं होगी ? क्या अब कोई बेरोजगार युवक धर्म के नाम पर गुमराह नहीं किया जायेगा ? क्या पाकिस्तान में बैठे सरफिरे कट्टरपंथी अब भारत विरोधी गतिविधियाँ बंद कर देंगे ? क्या पाक अधिकृत कश्मीर में लगे दहशतगर्दी के सेकड़ो कारखाने बंद कर दिए जायेंगे ? नहीं हुज़ूर इसमें से कुछ नहीं होने वाला एक 25 साल के गुमराह गरीब मजदूर को मारकर हम चाहे कितने ही खुश क्यों न हो जाये पर वास्तविकता ये है की हम एक मच्छर को मारकर कर यह सोच रहे हैं की अब मलेरिया नहीं फैलेगा पर कचरे का ढेर तो अब भी जस का तस है

1947 में हुए राष्ट्र के पुनर्जन्म से लेकर आज तक पाकिस्तान हमारे लिए सरदर्द की वजह बना हुआ है पर 120 करोड़ की जनसँख्या वाला हमारा देश उसके आगे लाचार और बेबस सा दिखता है याद रखिये अत्यधिक सहनशीलता कायरता की निशानी होती है वीरता की नहीं आये दिन होने वाले धमाके और आतंकवादी घटनाएं अब हमे व्याकुल नहीं करती हमने उनके साथ जीना सीख लिया है हमारे शहर और बाज़ार दहशतगर्दों के लिए आखेट स्थल बन चुके है आइये निशाना लगाइए और उड़ा दीजिये शायद आपको पता होगा म्यूनिख ओलिंपिक के दौरान इस्रायली खिलाड़ियों को बेरहमी से क़त्ल कर दिया गया था जवाबी कारवाही में इस्रायल की खुफिया एजेंसी मोसाद ने सभी कातिलो को चाहे वो दुनिया के किसी भी कोने में क्यों न छुपे हो ढूंड ढूंड कर मार गिराया ये जस्बा ये सोच ये दृढ़ता जब तक हमारे राजनियकों में नहीं आएगा तब तक इसी तरह हम खौफ के साए में जीते रहेंगे

अगर हमारी सरकार इस दिशा में वाकई गंभीर है तो हमें भी इस्रायल की तरह पाक अधिकृत कश्मीर में चल रहे आतंकवादी शिविरों को नेस्तनाबूद करना होगा अब कोरी गीदड़ भभकियों से काम चलने वाला नहीं है कसाब तो मात्र एक प्यादा था खिलाड़ी तो वहां पाकिस्तान में बैठे अपना खेल खेल रहे है अब वक्त आ गया है की हम पाकिस्तान को दिखा दे की वह भारत को यूँ हलके में न ले वर्ना वो वक्त दूर नहीं जब चीन भी कोई बड़ी गुस्ताखी करने की कोशिश कर ले

Tuesday, October 30, 2012

साहित्य, सिनेमा और समाज


साहित्य और सिनेमा किसी भी समाज की दशा और दिशा का सूचक होते है उस दौर में सबसे ज्यादा पढ़ा जाने वाला साहित्य और देखा जाने वाला सिनेमा आम जनमानस की सोच का परिचायक होता है प्रचलित रचनाओं के विषय उस दौर के सामजिक हालातों का आइना होते हैं उदाहरण के तौर पर 60 के दशक में सिनेमाई परदे पर गरीब किसान और बेदर्द-बेरहम साहूकार से जुडी कहानियों का बोलबाला था वही 80-90 के दशक में ये तस्वीर बदल गयी और इस दौर में बेरोज़गारी और भुखमरी सिल्वर स्क्रीन पर छाई रही सदी का अंत आते-आते बड़ा पर्दा खुशनुमा पारिवारिक कहानियों से अटा पड़ा था

पर आज का दौर अलग है कला पर बाज़ार हावी है ये वो दौर है जब बाज़ार की मांग उत्पाद का स्वरुप तय करती है पर पहले ऐसा न था पहले की रचनाएँ उद्देश्यात्मक हुआ करती थी हर एक रचना के पीछे रचियता की सोच, एक विचार हुआ करता था उदाहरण के तौर पर पिछली सदी के मध्य में जब स्वाधीनता  संग्राम अपने चरम पर था तब साहित्य एक उत्प्रेरक की भांति कार्य कर रहा था वीर रस की कवितायें नौजवानों के खून में एक नया जोश भर देती थी वे इस यज्ञ में स्वयं की आहुति देने के लिए जरा भी नहीं सकुचाते थे

परन्तु आज व्यावसायीकरण के इस दौर में कला कलाकार की कल्पनाशीलता का प्रतिबिम्ब नहीं अपितु उपभोक्ताओं की आकांक्षाओं को तृप्त करने का साधन मात्र बनकर रह गयी है लेखक की कलम से आजकल वही शब्द निकलते है जो इस बाज़ार में बिकाऊ होते है ऐसा साहित्य समाज को दिशा नहीं दे सकता ये वो पुस्तकें नहीं जिन्हें लकड़ी की अलमारी में सलीके से सजाया जाता है ये तो वे किताबें हैं जिन्हें गद्दे या तकिये के नीचे छुपाया जाता है

सिनेमा की स्थिति तो अधिक दयनीय है संदेशात्मक प्रायोगिक सिनेमा को "कला" फिल्म का तमगा लगा नकार दिया जाता है ऐसी कहानियों को निर्माता से लेकर वितरक तक दूर से ही प्रणाम करते हैं  इस तरह के सिनेमा  को किसी फिल्म महोत्सव में फिल्म समीक्षकों की वाहवाही और एक-दो पुरस्कार तो मिल जाते हैं पर सिनेमाघरों में दर्शकों की भीड़ नहीं मिलती वही दूसरी ओर दोयम दर्जे की फूहड़ मसाला फ़िल्में आय के नित नए रिकॉर्ड बनाती है

हालात बेहद चिंताजनक है समाज को सही दिशा की पहचान कराने वाले साहित्य और सिनेमा आज स्वयं दिशाहीन हो चुके हैं जैसे गीता और कुरान में लिखी हर एक पंक्ति आज हमारे लिए निर्विवाद रूप से सत्य है वैसे ही यदि आने वाली पीढीयाँ आज की कृतियों को आधार बना सत्य की परिभाषा गढ़ने लगी तो अंजाम भयावह तथा कल्पना से परे होगा

सोचिये विचारिये और समझिये 


Wednesday, October 10, 2012

"दामाद चालीसा"



काश हम भी उनके "दामाद" हो पाते..



देख ज़माने को अपनी किस्मत पर इतराते

शहर भर में अपना रौब जमाते,

काश हम भी उनके "दामाद" हो पाते..



मंत्री से संत्री सब हमारे आगे सर झुकाते,

हाथों में "Butter" लिए, अफसर लाइन लगाते,

काश हम भी उनके "दामाद" हो पाते..



बिना "checking" हम दुनिया घूम आते,

सरकारी खर्चे पर रोज़ मौज मनाते,

काश हम भी उनके "दामाद" हो पाते..



हर बिमारी का इलाज अमरीका में करवाते,

चिंता नहीं "बिल" की, वो तो सरकारी खाते से जाते,

काश हम भी उनके "दामाद" हो पाते..



बिना "Interest" करोड़ों के लोन मिल जाते,

"Corporates" हमसे ऐसी यारी निभाते,

काश हम भी उनके "दामाद" हो पाते..



करोड़ों के "flat" लाखों में मिल जाते,

किसानों की जमीन पर बंगले बनवाते,

काश हम भी उनके "दामाद" हो पाते..



लाखों से करोड़ों हम यूँ ही बनाते,

धन-दौलत के अम्बार लगाते,

काश हम भी उनके "दामाद" हो पाते..



काश, काश काश हम भी उनके दामाद हो पाते ....



आनंद भाटिया

Saturday, August 25, 2012

घोटाला या घाटा



आजकल अखबार हो या खबरिया चैनल या फिर लोकतंत्र का नया स्तम्भ कहे जाने वाला सोशल मीडिया यानी की फेसबुक ट्विट्टर आदि हर कहीं CAG की रिपोर्ट्स की ही चर्चा गर्म है 2G CWG से लेकर अभी हालिया कोयला ब्लाक आवंटन मामले पर इसकी रिपोर्टस ने सरकार को अन्दर से हिला कर रख दिया है पिछले 2-3 सालों की बात करी जाए तो CAG इस देश में एक परोक्ष विपक्ष की भूमिका बखूभी निभा रही है एक और जहा सरकार की नींद हराम हो रही है वही कोयला ब्लाक मामले में इसकी रपट ने विपक्षी पार्टियों की राज्य सरकारों को भी कटघरे में खड़ा कर दिया है


सही मायनों में स्थिति उतनी भी साफ़ नहीं जितनी की प्रतीत होती है मीडिया और विपक्ष जिसे घोटाले की संज्ञा दे रहा है क्या वाकई ये एक घोटाला है खुद CAG की रपट में भी कहीं घोटाले शब्द का उपयोग नहीं किया गया है हर जगह सरकारी खजाने को हुए उस नुकसान के बारे में ही बताया गया है जो नीलामी ना होने की वजह से हुआ सही मायनों में हमें घाटे और घोटाले के बीच की अंतर को समझना होगा

ऊपर की कुछ पंक्तियाँ पढ आप ये अंदाजा ना लगाए की लेखक कांग्रेस का हितेषी या देश का अहित चाहने वाला शख्स है प्रयास सिर्फ इस मुद्दे को समझना मात्र है इस विषय  को सरलता से समझने लिए कुछ उदाहरणों की मदद लेना सही रहेगा मसलन fertilizers को ही लीजिये सरकार इसके मूल्य को गरीब किसान की पहुँच में बनाये रखने के लिए भारी सब्सिडी देती है हर साल सरकारी खजाने का एक बड़ा हिस्सा इस सब्सिडी की भेंट चढ़ जाता है फिर भी ये जारी है और निकट भविष्य में इसके ख़त्म किये जाने की कोई सम्भावना नहीं है देखा जाए तो सरकारी सब्सिडी को खत्म कर सरकारी खजाने को भरा जा सकता है पर फिर भी लाभ-हानि के गणित के विपरीत यह विषय सामाजिक सरोकारों से जुड़ा है कुछ यही हाल हमारे घर की रसोई में काम में आने वाली रसोई गैस का भी है यदि सरकारी सब्सिडी खत्म कर दी जाए तो आप एक सिलिंडर के लिए दुगने से ज्यादा दाम चुका रहे होते उपरोक्त दोनों ही उदाहरणों से ये बात तो साफ़ हो जाती है की यहाँ पर घाटा हो रहा है घोटाला नहीं

2G मामले पर यदि गौर किया जाए तो नीलाम कर स्पेक्ट्रुम बेचने से दूरसंचार कंपनियों की लागत बहुत बढ जाती है और जिसका सीधा खामियाजा उपभोक्ताओं को ऊँची कॉल दरों के रूप में भुगतना पड़ता आज हमारी कॉल दरें समूचे विश्व में सबसे सस्ती हैं 1 पैसे प्रति सेकंड की अविश्वसनीय दरों पर हम घंटो फोन पर बतियाने का लुत्फ़ उठा रहे हैं और साथ ही सरकार की नीतियों को कोस भी रहे है संकर कुछ अजीब सा नहीं लगता आपको ?

कोयला आवंटन के मामले में भी कुछ ऐसा ही दृश्य है देश में पैदा होने वाली बिजली का लगभग 70 फीसदी हिस्सा कोयले से आता है कोयले का मूल्य बढने का सीधा मतलब है की बिजली पैदा करने वाले इन बिजली घरों की लागत बढ जाना और परिणाम स्वरुप बिजली के दामों में भारी बढोत्तरी आप और मैं जिसके लिए बिलकुल भी तैयार नहीं है और ना ही ये देश क्योंकि किसी भी देश के विकास का पहिया बिजली की आपूर्ति पर ही भागता है बिजली नहीं होगी तो विकास भी ठप्प हो जायेगा

कुल मिलकर बात यह है की जहाँ बात सामाजिक सरोकारों की हो वहां सरकार को फायदे नुक्सान से ऊपर उठा आमजन के हित के बारे में सोचना होता है और ऐसी नीतियों बनानी होती है जो समाज व देश के विकास में मददगार साबित हो

पर अब इस विषय के दूसरे पहलु पर नज़र डालते हैं देश हित में कहकर क्या प्राकृतिक सम्पदा को निजी हाथों में औने-पौने दामों पर असीमित लाभ कमाने के लिए दिया जा सकता है 2G हो या कोयला आवंटन मामला दोनों में ही एक बात सामान्य थी की रातों रात बनी बहुत सी बेनामी कंपनियों ने ऊंची पहुँच के बल पर स्पेक्ट्रुम या कोयला ब्लाक ले लाखों की कंपनियों को पलक झपकते ही करोड़ों-अरबों का बना लिया कुछ ने हाथो हाथ कंपनियों में थोड़ी हिस्सेदारी बेच करोड़ों छाप लिए कुछ ने पूरी कम्पनी ही बेच डाली इसमें कोई संदेह नहीं की करोड़ों के इस खेल में बहुत बड़ा हिस्सा कंपनियों की तरफदारी करने वाले नेता या पार्टी को भी गया ही होगा पर इस वजह से पूरी नीति को दोष देना सही नहीं होगा यहाँ नीति सही है और यदि कुछ कमी भी है या उसमें थोडा बहुत सुधार किया जा सकता है पर दोष है क्रियान्न्वन में, की किस तरह वह अमल में लायी गयी यदि सरकार ने संजीदा उद्योगपतियों को या सिर्फ सरकारी कंपनियों को कम दरों पर आवंटन किया होता या आवंटन की शर्तो में कड़ाई बरती होती जैसे पहले ही लागत को ध्यान रख लाभ को सिमित कर दिया जाता या विक्रय मूल्य को तय कर दिया जाता तो शायद ऐसा नहीं होता

दोनों ही तथ्य हमारे सामने है एक तरफ है सामाजिक सरोकार और दूसरी तरफ घोटालों के कैंसर से सड़ चुकी हमारी व्यवस्था जिसके ठीक होने के आसार कम ही नज़र आते है जहा तक बात की जाए हालिया घटनाओं की इसमें कोई दोराय नहीं की यहाँ नीति से कहीं ज्यादा नियत ठीक नहीं थी अब ये हमारे ऊपर है की हम इससे घोटाला माने या घाटा ये आपको और हमे तय करना है






Saturday, August 18, 2012

बरसाती मेंडक



"बरसाती मेंडक" ये अलफ़ाज़ उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में छाए हुए थे वैसे आपकी जानकारी के लिए बताये देते हैं की बरसाती मेंडक का अर्थ उन चरित्र विशेष के व्यक्तियों से है जो किसी विशेष अवसर पर ही दर्शन देते हैं आमतौर पर ऐसे महानुभावों के दर्शन दुर्लभ ही होते हैं चलिए हम अपने विषय से ना भटकते हुए हाल ही में संपन्न उत्तर प्रदेश विधान सभा चुनावों में इस प्रजाति की महत्ता पर प्रकाश डालते हैं असल में एक चुनावी सभा के बाद मिडिया से अनौपचारिक बातचीत के दौरान हमारी "राष्ट्र पुत्री" श्रीमती प्रियंका वाड्रा ने खिलखिलाते हुए स्वर में कहा की उन्हें इस बात से गुरेज नहीं की उन्हें बरसाती मेंडक कहा जाए पर राहुल गाँधी (राष्ट्र पुत्र) को ऐसा कहना गलत होगा क्योंकि वे तो लगातार गरीबों, किसानों आदि की दबी आवाज़ को उठा प्रदेश सरकार के कानों तक पंहुचा रहे हैं

ऐसा नहीं की सिर्फ प्रियंका अपने बहिन होने का फ़र्ज़ अदा कर रही थी उस वक़्त तो कांग्रेस का हर छोटा-बड़ा नेता राहुल भैया की शान में कसीदे गड़ने में लगा था कोई उन्हें महान जन नायक बता रहा था तो कोई क्या, एक ने तो बातों ही बातों में प्रधानमंत्री की कुर्सी भी उन्हें सौंप दी थी एक अलग ही होड़ सी लगी थी चाटुकारिता की

चुनाव निपट गए परिणाम भी आ गए अपने कबूल नामे के अनुसार प्रियंका फिर गायब हो गयी पर उनके दावे के उलट गरीब किसानों के मसीहा राहुल बाबा भी कहीं दिखाई नहीं दे रहे एक ओर जहाँ देश का एक बड़ा हिस्सा सूखे की चपेट में है, आर्थिक मोर्चे पर हालत बाद से बदतर हो रहे है, पुणे में ब्लास्ट हो गए, जातीय हिंसा की आग असम जल रहा है पर कांग्रेस के युवराज नदारद हैं क्या उनकी स्कूली किताबों में देश क्या सिर्फ भट्टा पारसोल तक ही सीमित है क्या उत्तर प्रदेश ही इस देश के नक़्शे में एक मात्र राज्य है इस लेख पर "दिग्गी राजा" की दृष्टि पद जाए तो वे पहली प्रतिक्रिया में ही लेखक को कांग्रेस विरोधी या RSS का नुमाइंदा करार कर दे पर यहाँ ये प्रश्न उठाना स्वाभाविक है की जिस व्यक्ति को देश के भावी प्रधानमंत्री के तौर पर प्रचारित किया जा रहा हो उसे असम का नरसंहार, मुंबई की हिंसा, पूर्वोत्तर के लोगों का दर्द क्यों दिखाई नहीं देता ? क्यों वो इन सब मुद्दों पर खामोश नज़र आते है अलबत्ता ये कहना ठीक होगा की नज़र ही नहीं आते हैं भट्टा पारसोल तथा उत्तर प्रदेश के प्रति इतनी संवेदनशीलता पर विदर्भ के किसानों की बढती आत्महत्याओं की खबरे आपको विचलित क्यों नहीं कर पाती ?

इतना सब देख सुन लेने के बाद तो प्रियंका का ये कहना की राहुल "बरसाती मेंडक" नहीं हैं हास्यास्पद ही लगता है ... आज इस देश को जरुरत है प्रगतिशील सोच वाले युवा नेतृत्व की जो कश्मीर से कन्याकुमारी तक बदलाव की बयार बहा सके, "गाँधी" होने की वजह से राहुल के पास ये स्वाभाविक मौका भी है और अगर वे सच में कुछ सही करना चाहते हैं तो दिग्गी के लिखे बयानों को तोते की तरह पड़ना छोड़ उन्हें अब जमीनी हकीकत से वाकिफ होना होगा तब कहीं जाकर वे नहीं कहलायेंगे "बरसाती मेंडक" .....