Thursday, October 31, 2013

गेंदबाज़ी कि मौत


कुछ वक़्त पहले टीवी पर एक नामचीन सीमेंट कंपनी के विज्ञापन आता था जिसमें एक लड़की नन्हे मुन्ने से कपड़ो में समंदर से निकलती थी और पीछे से आवाज़ आती थी "विश्वास है इसमें कुछ ख़ास है।" आज तक समझ नहीं आया कि वे किसकी बात कर रहे थे, लड़की कि या सीमेंट की। शायद advt एजेंसी वालों को लगा होगा कि शेविंग क्रीम से लेकर मर्दाना जाँघिया तक जब स्त्री चेहरे दिखा कर बिक रहे है तो शायद यह भी बिक जायेगा। दोष उनका नहीं है, हर सोच पर बाज़ार हावी है। व्यावसायीकरण के इस दौर में बिक्री बढ़ाने के लिए कोई भी हथकंडा जायज है। 
कुछ यही हाल क्रिकेट का हो गया है। टेस्ट मैच तो पहले ही बमुश्किल कोई देखता था अब ट्वेंटी ट्वेंटी के आने के बाद एकदिवसीय के लिए भी दर्शक जुटा पाना मुश्किल होता जा रहा है। ऐसे में इस तरह के नियम बनाये जा रहे है कि चौके छक्कों कि बरसात हो और खेल में लोगो का interest बना रहे। हर छोर से अलग अलग गेंद, सामान्य ओवर्स में भी सिर्फ चार खिलाड़ियों को दायरे के बाहर खड़ा कर सकने कि बाध्यता और ऊपर से बैटिंग के लिए मददगार पिच। यह सब गेंदबाज़ो के लिए एक दुःस्वप्न कि तरह है। पहले ही पिच से कोई उम्मीद नहीं ऊपर से भारी बल्लो से लग कर गेंद सीधा बाउंड्री का मुंह देखती है, ऐसे में गेंदबाज़ बेबस से नज़र आते है। मुल्क भर में दुश्मन कि तरह देखे जाते है सो अलग। 
पहले ही गली मोहल्ले का कोई लड़का गेंदबाज़ नहीं बनाना चाहता हर किसी को चौक्के छक्के जमाने कि ख्वाहिश रहती है ऊपर से खेल पर बाज़ार इसी तरह हावी रहा और उसकी मूल भावना के साथ यूँ ही खिलवाड़ किया जाता रहा तो वो दिन दूर नहीं जब कपिल देव और शेन वार्न जैसे नाम सुन लोग आश्चर्य से भर जाया करेंगे और गेंदबाज़ी कि कला का अंत हो जायेगा। 


किसके हैं सरदार पटेल ?

उन्नाव के एक साधू ने जब सपने में 1000 टन सोना देखा तो वहाँ पुरातन विभाग कि टीम के साथ उस खजाने पर अपना हक़ जतलाने वाले कई तथाकथित वंशज भी पहुँच गए। कोई खुद को राजा का वंशज बतलाने लगा तो कोई स्वयं को सेनापति के खानदान कि पैदाइश। जहाँ राज्य सरकार पूरे के पूरे सोने को अपना बताया तो वहीं गाँव वालों ने खजाने में अपना हिस्सा मांगने में देर ना लगायी। Airport से लेकर यूनिवर्सिटी तक कि मांग हो गयी। खुदाई ख़त्म हो गयी और सबको मिला बाबा जी का ठुल्लु। 
आजकल यही हाल सरदार वल्लभ भाई पटेल और जय प्रकाश नारायण का है। एक तरफ जहां कांग्रेसी सरदार पटेल और नितीश JP पर अपना copyright बता रहे है, वहीं दूसरी तरफ Narendra Modi ने बड़ी चतुराई से लोह पुरुष और जय प्रकाश को कांग्रेस और JDU कि झोली से चुरा अपना ब्रांड एम्बेसडर बना लिया। कांग्रेसी बौखला गए है, नितीश का पारा चढ़ा हुआ है पर कुछ भी कहिये आखिरकार इस मुल्क को नेहरू गांधी परिवार के अलावा भी किसी और के बलिदान कि याद आ ही गयी। 
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Thursday, October 24, 2013

Sharad Power

एक ज़माना था जब आलू और प्याज गरीबी रेखा के नीचे आते थे। मिडिल क्लास भिन्डी और हाई क्लास मटर तो इनकी तरफ नज़र उठाकर भी नहीं देखते थे। पर मियाँ वक़्त हमेशा एक सा नहीं रहता। एक रोज़ प्याज की "Sharad Power" लाटरी लग गयी और देखते ही देखते कल का BPL प्याज भी आज fuji apple की बराबरी कर रहा है। आजकल तो Mercedes में आता जाता है। सिर्फ बड़े बंगले वालों के यहाँ ही उठता बैठता है। छोटे गरीबों के तो मुंह भी नहीं लगता। अब तो दर्शन भी दुर्लभ है श्रीमान के। बड़े बड़े लोग बड़ी बड़ी बातें। 

ऐसा नहीं की किस्मत सिर्फ श्रीमान प्याज की ही बदली हो। अरे भाई साहब "Sharad Power" लाटरी ने कईयों को आसमान की ऊचाइयों तक पहुंचा दिया है। अब "चीनी" को ही ले लीजिये। कल तक बेचारी मिडिल क्लास थी, लाटरी क्या लगी अब तो हाथ ही नहीं आती। यही कुछ हाल Mr दूध का भी है। कुल मिलकर "Sharad Power" ही असली "Power" है। 

Wednesday, October 23, 2013

नौटंकी साला

बहादुर शाह जफ़र का नाम तो सुना ही होगा, अंतिम मुग़ल शासक थे। दिल से कवि थे, सत्ता का कोई मोह न था ना ही राज करने की ability थी। मुल्क गया अंग्रेजों के और खुद गए अल्लाह के पास। कुल मिलाकर गलत आदमी गलत जगह। 
कुछ यही हाल राहुल गांधी का भी है। कभी पिछड़ों को jupiter पर पहुंचा देते हैं, तो कभी मध्यप्रदेश की जनसभा में जुबान पर तेल लगा कर पहुँच जाते हैं और बोल बच्चन महिलाओं के साथ भ्रष्टचार कर बैठते है। कोई तरकीब ना चली तो आज emotional कार्ड खेलने से भी गुरेज ना किया। बोला "दादी, पापा को मारा अब मुझे भी मार डालेंगे।" हद्द करते हो राहुल बाबा, सही में हद्द हो गयी। बेटा यही हाल रहा ना तो 2014 में तुम्हारी अम्मा भी नरेन्द्र मोदी को वोट दे देगी। 

Tuesday, October 22, 2013

करवाचौथ

आज सुबह सवेरे facebook खोलते ही एक नामी पत्रिका की एक चर्चित महिला सम्पादक का status मेसेज पढ़ा, मोहोदया ने लिखा था "करवाचौथ का नाश हो, सत्यानाश हो" उनके इस विचार की आलोचना करना सही नही है क्योंकि यह उनकी व्यक्तिगत सोच हो सकती है या खुद पर आधुनिक विचारों से लबरेज़ होने का तमगा चस्पाने की ख्वाहिश या फिर facebook पर सस्ती लोकप्रियता हासिल करने और सेकड़ों हज़ारों Likes पाने की जद्दोजहद, यह कुछ भी हो सकता है। छोडिये इन सब बातों को क्योंकि दो लफ्ज़ ज्यादा निकल गए तो हम पर दकियानूसी पुरुष मानसिकता से पीड़ित होने का आरोप लगा दिया जाएगा।मुद्दा करवाचौथ है उसी पर बात करते है। 
क्या अपने प्रियजन की लम्बी आयु के लिए प्रार्थना करना गलत है ? अब आप कहेंगे की स्त्रियाँ ही सजा क्यों भुगते, तो भैय्या हमने कब कहा की व्रत रखने का ठेका बेचारी औरतों का ही है पुरुष भी रखे।हुम तो कहते है की उस दिन घर में चुल्हा ही ना जलाइये। हम तो यह दावा भी नहीं करते की व्रत रखने मात्र से आपका जीवन साथी भीष्म पितामह की भाँती चिरायु को प्राप्त करेगा। हम तो मात्र यह कहने का प्रयास कर रहे है की इन तीज त्योहारों के पीछे छिपी भावना और इनके महत्व को समझना बेहद जरूरी है। आज के इस युग में पति और पत्नी दोनों ही अपनी अपनी नौकरियों में बुरी तरह व्यस्त होते है, सप्ताह सप्ताह भर बात करने का अवसर तक नहीं मिलता। बड़ी मुश्किल से रविवार को दो घडी बात हो पाती है। ऐसे में रिश्ते की मिठास कहीं खो सी जाती है, इतना वक़्त बाहर गुजरता है की एक दूसरे की कमी खलना ही बंद हो जाती है। आदत सी हो जाती है एक दूसरे के बिना रहने की और ऐसे में छोटी सी अनबन भी विकराल रूप धारण कर लेती है। छोटी सी बातों पर रिश्ते टूटने की कगार पर पहुच जाते है। मित्रों तब ये तीज त्यौहार ही हमारे रिश्तों में गर्माहट लाते हैं। हमें अपनों के करीब ले जाते है। एक दूसरे के निस्वार्थ प्रेम को देख भावनाओं का ऐसा ज्वार उमड़ता है जो इस बंधन को और मजबूत बना देता है। बाकी आप सब समझदार है, निर्णय आप स्वयं करें। 

Monday, October 21, 2013

पापा घर पर नहीं है

जब घर के आँगन में खेल रहे बच्चे से कोई बिन बुलाया मेहमान पिताजी के बारे में पूछता है, तो बच्चा लगभग दौड़ता हुआ भीतर जाता है और पिताजी को उसके आने की खबर देता है। मानो उसके कंधो पर कोई बहुत बड़ी जिम्मेदारी डाल दी गयी हो। पिताजी उस बिन बुलाई आफत से छुटकारा पाने के लिए बच्चे को झूठ बोलने के लिए कह देते है। इस वक़्त बाल मन में एक साथ कई भाव जन्म लेते है। क्रोध "ये क्या बात हुई मुझसे क्यों झूठ बुलवा रहे हो,खुद बोल दो ?" असमंजस "हमेशा तो कहते हैं की सच बोलो और आज मुझसे झूठ बुलवा रहे है ?" ग्लानि "मैं झूठ बोल रहा हूँ।" पीड़ा "अंकल बहुत दूर से आये है।" बस इन्ही मिश्रित भावों के भंवर जाल में फंस चूका वह बालक बिना आँख मिलाए बोल आता है "अंकल पापा घर पर नहीं है।"
हाल ही में कुछ ऐसा ही हुआ। कोयला घोटाले में CBI ने आनन फानन में कुमार मंगलम बिरला और कोयला सचिव पी सी पारेख के खिलाफ FIR दर्ज करी पर अब PMO के रुख को देखते हुए CBI FIR यह कहते हुए वापस लेने का मन बना रही है की उसके पास इस मामले में कोई सबूत हैं ही नहीं। हद है भैय्या। 
   

Sunday, October 20, 2013

गुडिया (भाग-1)

गुड़िया, इसी नाम से पुकारते थे सब उसे। छोटी सी चिड़िया, जिसकी चहक से घर का कोना कोना गूंजता रहता था। हाथ नहीं आती थी किसी के, दो पल के लिए अकेला छोड़ दो, चार मोहल्ले दूर मिलती। छोटी सी पर एकदम शैतान की नानी। एक बड़ी बहिन भी थी। शायद पांच-छह साल बड़ी। कुछ ना बोलती, शांत ही रहती थी, फिर भी ना जाने क्यों दादी उसे हर वक़्त डांटती ही रहती थी। कई बार वो छत पर एक कोने में घुटनों में सिर दबाये रोया भी करती पर गुडिया कुछ समझ नहीं पाती, बस डरी हुई सी देखती ही रहती। बहिन को ही नहीं दादी माँ और गुडिया को भी ना जाने किस बात पर कोसती रहती, हर वक़्त चीखना चिल्लाना जैसे उनकी आदत में शुमार था। 
घर ज्यादा बड़ा नहीं था, दो कमरों, चार चीज़ों वाला घर। पिताजी कपडे वाले लालाजी के यहाँ मुनीम हुआ करते थे। सुबह निकलते, देर रात ही घर आते, रविवार को आधे दिन की छुट्टी मिला करती। उस वक़्त भी पिताजी कुछ कागजों किताबों में व्यस्त रहते। जब बच्चे नहीं पैदा कर रही होती तो माँ, औरतों के कपडे सिला करती थी सलवार सूट वगरह। आँखों पर अंटे वाली कांच की बोतल के पैंदे जितना मोटा चश्मा चढ़ गया था। कभी बडकी तो कभी छुटकी से मशीन की सुई में धागा डलवाया करती, पर सिलाई मशीन की खट-खट बंद नहीं होती। दोनों बेटियों को बहुत प्यार करती थी माँ। रात को सोते वक़्त एक ना एक कहानी जरूर सुनाती। बिना माँ से कहानी सुने तो गुडिया को नींद ही नहीं आती थी। बहुत प्यारी थी माँ। 
चौथे जन्मदिन पर छोटा भाई मिल गया। खेलने के लिए जीता जागता खिलौना। हमेशा चिढ-चिढ करने वाली दादी आजकल बेहद खुश रहती थी। पर बदली नहीं थी छोटे भैय्या को हाथ भी नहीं लगाने देती थी, पास जाते ही गन्दा सा मुंह बनाकर चिल्लाती। पर वो भी कम ना थी जब छोटू भैय्या माँ की गोद में होता तो उसके साथ ढेर सारी मस्ती कर दिन भर की कसर निकाल लेती। 
गुडिया बड़ी हो रही थी अब उसका भी दाखिला बड़की वाले सरकारी कन्या विद्यालय में करवा दिया गया। स्कूल में ढेर सारे दोस्त मिले, बस फिर क्या था, साइकिल हवाई जहाज बन गयी। सार दिन उधम, कभी कहाँ तो कभी कहाँ। चार कक्षाओं के लिए एक अध्यापक थे तो पढ़ाई लिखाई तो उतनी नहीं हो पाती थी पर फिर भी बहुत कुछ सीख रही थी। 
माँ आजकल बीमार बीमार सी रहने लगी थी, वजन बहुत कम हो गया था। सारा दिन खांसती रहती। पता नहीं क्या हो गया था पर फिर भी सिलाई मशीन नहीं छोडती थी। कुछ दवाइयां भी खाती थी। आजकल कुछ ज्यादा ही गले लगाती थी अपने बच्चों को। कभी-कभी रो भी देती। चेहरे का रंग हल्का काला सा पड़ने लगा था। आँखें अन्दर धस सी गयी थी। चलता फिरता कंकाल हो गयी थी माँ। 
एक दिन स्कूल की पूरी छुट्टी की घंटी बजने से पहले ही भोपाल वाले मामा गुडिया को लेने आ गए, उनको देख कर गुडिया बहुत खुश हो गयी, क्योंकि हर बार मामा उसके लिए कुछ ना कुछ लेकर जरूर आते थे। इसी उम्मीद में तेज़ तेज़ लगभग दौड़ती हुई घर की तरफ चलने लगी। गुडिया जब घर पहुंची तो देखा घर के बाहर लोगों का हुजूम लगा है। कुछ औरतें और दादी रो रही थी, पिताजी एक कोने में चुपचाप खड़े थे, बडकी उनसे लिपट कर फूट फूट रो रही थी। कमरे के बीचों बीच माँ लेटी थी, सफ़ेद चादर में लिपटी हुई। मामा ने बताया माँ हमेशा के लिए भगवान जी के घर चली गयी …………………….

Friday, October 18, 2013

मुंगेरीलाल के हसीन सपने


सपने में साधू महाराज को सोने के भण्डार दिख गए, अच्छा है। बाबा जी कृपा करके तेल, गैस, कोयले, लोहे आदि के भी भण्डार देख ले तो देश का कुछ भला हो जाए। पर फ़र्ज़ करें बाबाजी की बात सही साबित होती है तो भला इंजीनियर बाबुओं को फिर कौन पूछेगा। Shell, British Petroleum से लेकर खनन क्षेत्र की बड़ी मल्टीनेशनल कंपनियों में बाबा जी को recruit करने की होड़ सी लग जाएगी। कुछ तो शायद उन्हें partnership तक भी ऑफर कर दे। रात को सपना देखो, सुबह उठकर खुदाई शुरू। बस इसी तरह चलेगा हमारा ये मुल्क। मुंगेरीलाल के हसीन सपनों के बलबूते होगा इस मुल्क का विकास। 

देखिये बात यहाँ यह नहीं है की साधू का स्व्प्न सही है या गलत पर, हो सकता है कोई दिव्य पुरुष हो या कोई देवदूत। पर उन चंद सोने के सिक्कों से देश कितने दिन खुशहाल रह सकेगा ? असली खुशहाली तो तब होगी जब हम अपनी असली दौलत को पहचानेंगे, जो गली मोहल्लों में यूँ ही बिखरी पड़ी है। वो दौलत और कोई नहीं हमारे बच्चे है। हर बच्चा अपने आप में एक खजाना है। हमें बस इतना प्रबंध करना है की उसे सही शिक्षा मिल सके। रोजगार के अवसर मिल सके। बस तभी आएगी इस देश में सही मायनों में खुशहाली। 

Wednesday, October 16, 2013

और प्यार हो गया

BTech कर रहे थे, और जैसे सरकार को चुनाव से एक दो महीने पहले जनता की याद आती है वैसे ही हमे अपनी किताबों की आती थी। वैसे भी ज्यादा पढने लिखने वाले नहीं थे। डिपार्टमेंट के सामने वाले साइकिल स्टैंड पर खड़े-खड़े ही हमारी पढ़ाई हो रही थी।
बरसात की एक सुहानी सुबह उसी साइकिल स्टैंड के सामने से गुजरता हुआ एक चेहरा देखा, प्यार सा, मासूम, एक दम अनछुआ। बैकग्राउंड में गाना बजने लगा "तुम हुस्न परी, तुम जाने जहां, तुम सबसे हसी, तुम सबसे जवां, सौन्दर्य साबुन @#$%^&*( ……"। दखते ही हम सबको को उस से प्यार हो गया, लाजमी भी था उमर ही ऐसी थी। सारे छोरे काम पर लग गए, उसके नाम पते से लेकर उसके बाप भाई का भी पता लगा लिया। 
अब मामला था बात करने का, दो लड़के कुछ ज्यादा ही उत्साहित थे। शर्त लगी और एक ने direct जाकर coffee के लिए पूछ लिया। होना क्या था ? मुंह लटकाए बैरंग लिफ़ाफ़े की तरह लौटते नज़र आये। माथे पर बेहूदा लड़के का tag और लगवा आये। अब भैया यह तो कोई तरीका ना था। दूसरा समझदार था, कुछ दिन शांत रहा। फिर अचानक एक दिन लड़की के सामने जा खड़ा हुआ, बड़े सलीके से पुछा "excuse me आपने यह सलवार सूट क्लोथ मार्केट से लिया है ? मेरा मतलब कौनसी दूकान से, actually राखी आ रही है और मुझे मेरी sister के लिए कुछ भेजना था। आपका सूट देखा तो लगा ये सबसे अच्छा रहेगा।" वह एक सांस में सब कुछ बोल गया। लड़की एक दम सन्न रह गयी पर एक भाई की भावनाओं को देख उसका दिल गद गद हो गया। दूकान का नाम बताया और और कपडा पहचानने की टिप्स भी दी। लड़का सर खुजलाता हुआ नादान बना खडा रहा। आखिर में तय हुआ की लड़की साथ चल कर सूट दिलवाएगी। नियत तिथि पर लड़का Deo की पूरी बोतल खुद पर उड़ेल लड़की के साथ शौपिंग पर निकल गया। एक सूट खरीदा और cafe coffee day में एक 2 घंटे में एक coffee और कहानी शुरू ............................................... 

Tuesday, October 15, 2013

भूखा

कॉलेज के बाद खुदा ना खास्ता नौकरी ना लगे तो भैया घरवाले तो बच्चे की हालत समझ ज्यादा कुछ नहीं कहते पर मोहल्ले की आंटियों की नज़रें और ताने जीना मुहाल कर देते है। अपने बेटे से कहीं ज्यादा चिंता उन्हें पडोसी के लड़के की होती है, उसकी पढाई, नौकरी, छोकरी हर बात में उनकी दिलचस्पी देखने लायक होती है। खुदके लौंडे से दसवी पास ना हो रही, पडोसी के लड़के के BTech के मार्क्स की चिंता हो रखी है। Uncle बेचारे क्या बोलते, उनकी बोलती तो शादी के बाद से ही बंद है। कुल मिलाकर हम पर आंटियों का कहर जारी था। 
हम नौकरी की उम्मीद छोड़ चुके थे। पिताजी बैंक PO से लेकर पटवारी तक की परीक्षाओं के आवेदन भरवाने लगे। बहुत अजीब लगता था पर और कोई चारा नहीं था। 30 की उमर पार कर चुकी बिन ब्याही लड़की और निकम्मे लड़के को घर वालों की बात माननी ही पड़ती है, पसंद नापसंद मायने नहीं रखते, आत्म विश्वास की धज्जियां उड़ जाती है। 
पर अचानक दिन बदले, हमारे yahoo के inbox में एक कंपनी का इंटरव्यू के लिए बुलावा आया। दिल्ली बुलाया था, 3rd AC का आने जाने का भाड़ा भी दे रहे थे। हम बड़े खुश हुए। रात का खान खाकर, माता पिता का आशीर्वाद ले, दस बजे की ट्रेन पकड़ ली। दिल में घबराहट थी पर ईश्वर पर विश्वास भी था। 
नौ बजे कंपनी के दफ्तर पहुचना था पर रेलगाडी भारतीय रीति को मद्देनज़र रखते हुए 2 घंटे की देरी से दिल्ली स्टेशन पहुची। 8:30 बज चुके थे तो हमने waiting रूम में ही खुदको चमका कर भागने में बेहतरी समझी। जैसे तैसे सवा नौ तक वहां पहुचे। देखा तो रंग उड़े चेहरों की पूरी एक जमात वहां पहले से बैठी थी। साफ़ सुथरे कपडे, किसी किसी के गले में टाई, खुरच खुरच कर चिकना किया गया चेहरा, हाथों में जन्म से लेकर आजतक का हिसाब किताब और मुंह में इष्ट का नाम। बड़ा भयभीत कर देने वाला दृश्य होता है। मैं धीमे धीमे क़दमों के साथ एक खाली कुर्सी पर जा बैठा। 
पेट खाली था पर इतना फर्क नहीं पड़ रहा था, इतने सारे बन्दे देख पहले ही हालत खराब थी। पहले written हुआ फिर इंटरव्यू होना था। written होते होते तक एक सवा बज चुका था तो हमे खाने के लिए भेज दिया गया। नाश्ता नहीं किया था तो भूख तो बड़ी जबरदस्त लगी ही थी। मैं लम्बे लम्बे क़दमों के साथ डाइनिंग हॉल की तरफ बढ चला पर भाईसाहब ये क्या ? वहां veg के साथ नॉन veg भी सजा हुआ था। गलत नहीं कह रहा पर भैया जिन्होंने बचपन से ना देखा हो तो उनकी हालत खराब होना तो लाजमी होता है, मेरा तो मन खराब हो गया, हिम्मत ही ना हुई खान खाने की। गंध सिर में चढ़ रही थी। मैं भाग कर बाहर आ गया। किसी तरह खुद को संभाल वापस आकर बैठ गया। 
दिन यूँ ही बीत गया कुछ नहीं खाया। खाली पेट गैस बन गयी, सिर फटने लगा। जैसे तैसे इंटरव्यू दे कर बाहर आया सोचा बस अड्डे पर कुछ खाकर घर के लिए बस पकड़ लूँगा। 
वहां पहुंचा तो पता चला हमारे शहर की बस निकलने ही वाली है। निर्णय लेने का भी वक़्त ना था, बस पकड़ ली। भूख से हालत बेहद खराब थी। पडोसी के patato chips के पैकेट को भिखारियों की तरह देख रहा था। भूख इंसान को पागल बना देती है। रात के 12 बजने को थे, पेट खाली था, दिमाग पूरी तरह सुन्न हो चूका था, हल्की हल्की सी झपकी में भी रोटी के सपने आ रहे थे। मैं पागल होने की कगार पर था, चीखना चाहता था चिल्लाना चाहता था। 
लगभग एक बजे ड्राईवर ने गाडी एक होटल पर रोकी, मैं लगभग भागता हुआ बहार आया पर आज भगवान परीक्षा लेने के मूड में थे, होटल के बाहर सींक कबाब लटका था। मैं नाक बंद कर आगे चला और जाकर काउंटर पर खड़े आदमी से मेनू पुछा। दाल फ्राई और चार रोटी का आर्डर दे बाहर आ गया। फिल्मों में सुना था पर सही मायनों में उस वक़्त इंतज़ार का हर एक पल एक सदी की तरह लग रहा था। खाना आया और मैं राक्षसों की तरह उस पर टूट पड़ा। सारी हीरो गिरी निकल गयी, नॉन veg के बगल का खाना खा लिया। 
वो दिन हमेशा याद रहेगा। भूख इंसान को पागल बना देती है, उसे किसी भी हद्द तक जाने के लिए मजबूर कर देती है। सही गलत कुछ नहीं दिखता। ज्ञान प्रवचन सब धरे के धरे रह जाते है। इंसान दरिंदा बन जाता है। 
समझ सकें तो समझ लीजिये, सड़क किनारे के गरीबों को प्रवचन देने और भिखारियों को कोसने की बजाय हो सके तो अपनी आमदनी का एक हिस्सा ऐसे कामों में लगाए की हर किसी को दो वक़्त का खाना नसीब हो सके। कोई बच्चा भूखा ना सोये। सरकार पर मत छोडिये, वो तो अपनी रफ़्तार से करेगी। आगे बड़ो अपने हिस्से का काम करो।  

Sunday, October 13, 2013

काला सफ़ेद


रावण अच्छा भला आदमी था, ज्ञानी, वीर और अदम्य साहसी। अपनी तपस्या से शिव जी तक को प्रसन्न कर दिया था। औरत के चक्कर में कट गए भाईसाहब। खुद के सिर कटवाए, बहन की नाक। कुम्भकरण को बड़ी नींद आती थी, इनके चक्कर में हमेशा के लिए सो गया। और देखा जाए तो किया भी क्या था ? सीता जी को private jet से लाये, सारी facilities वाले Sri Lankan Royal Suite में रखा, नौकर चाकर, खाना पीना सब कुछ। सबसे बड़ी बात छुआ तक नहीं, फिर भी राम जी को दया नहीं आई, चला दिया तीर नाभि पर। उन्होंने मारा वो तो ठीक, हम और हर साल पुतला जलाकर खुश होते रहते है। कुल मिलाकर खाया पिया कुछ नहीं, ग्लास तोडा बारह आना।
चलिए छोडिये, रावण का तो जो होना था हो गया, पर इतना जरूर कहा जा सकता है की राम का ईश्वरीय स्वरुप रावण की ही देन है। राम को पूजनीय बनाने वाला रावण है। Villain के बिना Hero का कोई मोल नहीं। समाज को Hero चाहिए, रोल मॉडल्स चाहिए, एक ऐसा  आदर्श व्यक्तिव, जिसका अनुसरण किया जा सके। स्कूली किताबों में जिसके महान चरित्र और कारनामों का वर्णन किया जा सके। रात को सोते वक़्त बच्चों को उसके किस्से कहानिया सुना कर प्रेरित किया जा सके। बस इसी जुगत में लेखक बुराई को एक दो shade और dark कर देते है और अच्छाई को milky white बना देते है। शायद रावण के साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ हो। शायद राम के चरित्र को उभारने के लिए रावण के color को कुछ ज्यादा ही कंट्रास्ट कर दिया गया हो। 
जो भी हो सही यही होगा की रावण से घृणा करने की बजाय हम राम के सद्कर्मों को अपना आदर्श बनाए। 

Monday, October 7, 2013

बाबाजी का ठुल्लू

आजकल की बात छोड़ दे तो पहले तन्ख्वायें उतनी नहीं हुआ करती थी। मुट्ठी बांधकर और मन मारकर चलना पड़ता था। घर की औरतें तो सारा दिन आमदनी और खर्च के तराजू का संतुलन बैठाने की जुगत में ही रहा करती थी। सब्जी तरकारी के लिए सब्जी मंदी के हज़ार चक्कर काट लेती थी, क्या पता अगले ठेले पर कुछ कम में मिल जाये। बच्चों की बे फिजूल की मांगों पर उन्हें कभी डांट कर तो कभी प्यार से घर के आर्थिक हालात के बारे में समझा दिया जाता था । बस इसी तरह रूपये दो रूपये बचा कर घर की economy को recession में जाने से बचा लेती थी। कुल मिलाकर जितनी लम्बी चादर हो उतने ही लम्बे पैर पसारने चाहिए ये बात हर घर की औरत को पता थी।
पर शायद यही बात हमारे economist प्रधानमंत्री को नहीं पता। अर्थव्यवस्था का बेडागर्क होने की कगार पर है। रुपया अपने निम्नतर स्तर पर जा बैठा है। वित्तीय घाटा की खाई दिन ब दिन चौड़ी होती जा रही है और PM साहब है की मुफ्त की रेवडिया बांटने में लगे है। सरकारी कर्मचारियों को 10% DA में वृद्धि का तौहफा देने के बाद 7th वेतन आयोग का उपहार भी दे डाला। वोट पाने के लिए सरकारी खजाने को खाली किया जा रहे है। अगली सरकार जब खजाने का दरवाजा खोलेगी तो उसे मिलेगा "बाबाजी का ठुल्लू"।

Friday, October 4, 2013

"A" Certificate

एक आम शहरी ग्रेजुएट की तरह मुझे भी नौकरी के लिए दूसरे शहर जाना पड़ा। घर, मोहल्ला, यार दोस्त सब के सब पीछे छूट गए, बहुत पीछे। इतने की शायद गिने चुनो के ही चेहरे अब याद हैं। साल छह महीने में जब घर जाना होता है, तो हर बार चेहरे बदले हुए से नज़र आते हैं, कुछ ज्यादा बूढ़े होते हुए तो कुछ जल्दी बड़े होते हुए तो कुछ नए भी। जो कल तक गोद में थे आज वो हाथ में भी मुश्किल से आते हैं। घर के सामने वाली सड़क पर खड्डे बड़े होते जाते हैं, और चलने की जगह छोटी। 
इस बार गया, एक सुबह माँ ने घर का कुछ सामान लाने को मुझे बाज़ार भेज दिया। दूकान पर एक जाना पहचाना सा चेहरा दिखा, कहीं तो देखा था। पर जल्द ही याद आया की सामने खड़े जनाब तो हमारे स्कूल के मित्र है। पुराने मित्र और बक्से में पड़ी पुरानी चीज़ें जब दिख जाए तो भावनाओं का ज्वार उमड़ आता है। शुरूआती बड़प्पन की झिझक के बाद हम जल्द ही खुल गए। BCom के बाद मित्र आजकल अपने ही पिताजी का cinema hall संभालते थे। जमा जमाया बिज़नस था तो करियर चुनने का कोई विकल्प ना था बस लग गए धंदे पर। 
उसने ऑफिस तक चलने को कहा तो हम चल दिए। पहुंचे तो देखा "A" फिल्म लगी हुई है पोस्टर देख हमारे कदम तो वही रुक गए। पर मित्र को कहीं बुरा ना लग जाए इसलिए सहजता में लिपटी असहजता के साथ हम तेज़ कदमो से उसके केबिन में जा घुसे। कोई देख लेता तो ना जाने क्या सोचता, "अच्छा तो ये शौक भी रखते है जनाब"। आते ही हमने सवाल दाग दिया "अरे भाई ये किस तरह की फ़िल्में लगा रखी है ?" मित्र ने मेरी असहजता को भांप धीरे से मुस्कुरा कर कहा की "देखो मित्र मैं एक व्यापारी हूँ और मेरा ध्येय पैसे कमाना है। हमारा सिनेमा हॉल बहुत पुराना है, पहले हमारे यहाँ भी सामान्य "U" श्रेणी की फ़िल्में ही लगा करती थी पर Hit, Flop के चक्कर में कई बार नुक्सान उठाना पड़ता था। फिर भी किसी तरह काम चला लिया करते थे। Internet और Mulltiplex का दौर शुरू होने के बाद तो वह भी मुश्किल हो गया। घरेलु फ़िल्में या तो download कर ली जाती है या किसी Mall में बने मल्टीप्लेक्स में देखी जाती है। Single screen में तो कबूतर ही अपना घोसला बनाने आने लगे। बात "A" फिल्मों की करें तो भैया ये कभी फ्लॉप नहीं होती, थोडा बहुत मुनाफा तो दे ही जाती है। और वैसे भी हम किसी दबाव तो नहीं डाल रहे, लोग खुद ब खुद आते है और देख कर निकल लेते है। बोलो हम क्या गुनाह कर रहे है ?" बात में तो दम है बन्दे की …
कुछ यही हाल राजनीति का है। हम राजनैतिक दलों को दोष देते हैं की वे अपराधियों को चुनावी टिकट देकर राजनीति का अपराधीकरण करते हैं। पर भैया सोचने वाली बात तो यह ही की उन अपराधियों को चुनाव जिताने वाले तो हम ही हैं। हम जीता रहे है तो पार्टियां तो जीतने वाले घोड़ों पर ही दांव लगाएंगी। अपने निजी स्वार्थ पूरे करने के लिए हम उनको सत्ता में बिठाते है और दोष राजनैतिक दलों के माथे मढ़ देते है। 
कुल मिलाकर बात यह है भैया इस बाज़ार में जो चलता है वही बिकता है। 

शौचालय या देवालय


एक नेता ने कह दिया की देवालय से पहले शौचालय बनाये जाने चाहिए, तो घर गली मोहल्ले से लेकर राजनैतिक गलियारों में हडकंप सा मच गया। मीडिया से लेकर सोशल मीडिया तक में बहस छिड़ गयी। विपक्षी दल के एक नेता ने इस डायलाग को अपना बताया, तो किसी एक संगठन ने इस बयान को सिरे से नकार दिया। छोडिये इन सब बातों को, राजनीति तो होती रहेगी। आखिर हमें चाहिए क्या ? शौचालय या देवालय ? 

देखा जाए तो प्राथमिकता के क्रम में देवालयों और शौचालयों से कहीं पहले "विद्यालय" आने चाहिए। कुछ दिन भगवान को मन में ही पूज लेंगें, खुले में निपट आयेंगे, आज तक भी तो कर ही रहे थे। जरुरत है इस मुल्क के हर एक बच्चे को शिक्षित और आत्म निर्भर बनाने के लिए "विद्यालयों" की, बच्चे पढेंगे, लिखेंगे आगे बढेंगे, उद्योग कारखाने लगायेंगे। तभी इस मुल्क का विकास होगा, विकासशील से हम विकसित बन पायेंगे। काम कराने के लिए तो नेपाली बांग्लादेशी बहुत है। 
कुल मिलाकर ना देवालयों की ना शौचालयों की इस मुल्क को जरुरत है "विद्यालयों" की। 
पढ़ेगा India तभी तो बढेगा India

Wednesday, October 2, 2013

कच्चा खिलाड़ी

90 के दशक के अंत में शहर मोहल्ले के बच्चों में video games का craze अचानक से जोर पकड़ रहा था। ये वो दौर था जब computer का नाम सिर्फ विज्ञान पत्रिकाओं में ही पढने में आता था। ऐसे में samurai और media के ये इलेक्ट्रॉनिक डिब्बे कुछ hi-fi से ही प्रतीत होते थे। 
इस craze को भुनाने के लिए कई छोटे बड़े विडियो गेम्स पार्लर शहर में कुकुरमुत्तों की तरह इधर उधर उग आये थे। कई STD PCO, Zerox वालों ने भी दूकान के पिछले हिस्से में एक टीवी डाल दिया। बच्चे आते और 1 रूपये में 15 min के हिसाब से खेल खाल कर निकल लेते। 
एक बार हम अपनी माताजी के साथ किराने की दूकान पर घर का सामान खरीदने बाज़ार गए। ज्यादा बड़े नहीं थे दूसरी तीसरी में रहे होंगे। माँ ने दुकानदार को सामान की लिस्ट थमा दी और इंतज़ार करने लगी, उस जमाने में घर का सामान जरुरत के हिसाब से खरीदा जाता था, आजकल तो सामान देख कर जरूरतें पैदा हो जाती है। मैं माँ के साथ ही खड़ा था तभी पड़ोस की दूकान से आती हुई MARIO की आवाज़ की तरफ मेरा ध्यान गया। मैंने झाँक कर देखा कुछ बच्चे उछल उछल कर विडियो गेम खेल रहे थे। बाल मन में इच्छा जाग गयी और मैंने माँ के कान में धीरे से कहा की मुझे भी खेलना है। उन दिनों तन्ख्वायें ज्यादा नहीं होती थी। माँ ने मेरे चेहरे की तरफ देख कुछ सोच कर हाँ कर दी। माँ मुझे video game वाले के पास ले गयी, पर हम तो खेलना नही जानते थे। मैं चतुराई के साथ बोला "भैया आप हमे बता दीजियेगा हम वही बटन दबा देंगे" पर इस तरह कोई भी खेल नहीं खेल जा सकता, 1 मिनट में काँटों वाले गमले से टकरा टकरा कर हमारा Game Over हो गया और हम मुंह लटकाए बाहर आ गये। 
राहुल बाबा का भी यही हाल है, राजनीति के नए खिलाड़ी है। दस पांच चेले चपाटों की फ़ौज उन्हें सलाह देती रहती है, और वो भी उनके अनुसार चलते रहते हैं । उलटे सीधे बयान दे कर एक दो लाइफ लाइन तो पहले ही गवां चुके है, जल्द ही ना समझे तो राजनीति से उनका Game Over होते अब देर ना लगेगी।

Tuesday, October 1, 2013

बाबा जी का झोला

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बाबा जी का झोला
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बचपन में हम बड़े नटखट और शैतान किस्म के बच्चे हुआ करते थे। एक जगह टिक कर बैठना तो हमारी फितरत में था ही नहीं, पहिये लगे थे हमारे पैरों में। दिन भर धमा चौकड़ी, दिन भर मस्ती। शांति किस चिड़िया का नाम है हमें कोई खबर ना थी। हमारी माताजी homework complete कराने के लिए बड़े जतन किया करती थी। कभी डांट फटकार कर तो कभी पिताजी का डर दिखा कर, वो हर मुमकिन कोशिश किया करती थी ताकि हम थोडा पढ़ लिख ले। पर भाई बहते पानी को क्या कभी कोई रोक पाया है ? हम उनके हाथ ही नहीं आते थे।

फिर एक दिन घर के दरवाजे पर कोई साधू बाबा आये, बड़ा अजीब सा look था उनका। बड़ी लम्बी दाढ़ी मूंछे, round round करके लपते हुए लम्बे बाल, पूरे चेहरे पर भभूत, माथे पर टीका, गेरुए वस्त्र, बगल में लटका बड़ा सा झोला। उन्हें देख हम डर कर घर के भीतर भाग आये और माँ की साडी के पल्लू में अपना चेहरा छुपा लिया। दुनिया में वही सबसे सुरक्षित जगह होती है। माँ मुझे देख हल्का सा मुस्कुराई, कटोरे में आटा भरा और बाहर खड़े साधू बाबा के बड़े से झोले में डाल दिया। साधू बाबा तो चले गए पर हमें डराने के लिए हमारी माँ को एक हथियार दे गए। फिर क्या था, जब भी हम उधम मचाते हमारी माँ हमें साधू बाबा के पास छोड़ आने की धमकी दिया करती, कहती की जो बच्चे शैतानी करते है बाबा जी उन्हें अपने झोले में डाल कर ले जाते है। सच में बड़ा भय लगता और हम शांति से बैठ जाते। कभी कभी तो रुआंसे भी हो जाते। कुल मिलाकर माँ की यह बात हम दिमाग में बुरी तरह घर कर गयी, अब हर बाबा हमे राक्षस की भाँती लगने लगे थे। हमें लगता था मानो हर बाबा बच्चा चुराने का काम ही करता है और उसका झोला बच्चों से भरा रहता है।

आजकल भी ऐसा ही कुछ हो रहा है। कहीं किसी cartoon channel पर गणेश जी स्कूल में किसी बच्चे का होम वर्क कर रहे है तो किसी और बच्चे की पिटाई। छोटा भीम तो कुत्ते से लेकर Dinasours से पंगे ले रहे है। हनुमान जी स्कूल जाते है और रास्ते में डाकुओं से लड़ आते हैं। यही हाल कृष्णा और बाकियों का भी है। जो director जैसे चाहे भगवान को नचा रहा है। असल कथा का तो दूर दूर तक नामो निशाँ भी नहीं है। बस धीरे धीरे यही कहानियाँ बच्चों का सच बन जायेंगी। आज नहीं पर कुछ पुश्तों बाद तो बच्चे यही सोचेंगे की भीम तो कभी बड़े हुए ही नहीं वे हमेशा छोटे ही थे।
देखिये ऐतिहासिक चरित्रों पर धारावाहिक बनाना गलत नहीं है पर साथ ही यह सावधानी भी बरतनी होगी की कहीं हमारी काल्पनिकता मूल कथा और चरित्र का स्वरुप ही ना बदल दे। क्योंकि जैसे गीता और कुरान में लिखी हर एक पंक्ति आज हमारे लिए निर्विवाद रूप से सत्य है वैसे ही यदि आने वाली पीढीयाँ आज की कृतियों को आधार बना सत्य की परिभाषा गढ़ने लगी तो अंजाम भयावह तथा कल्पना से परे होगा।