Monday, September 16, 2013

राम, रहीम और कद्दू

बचपन में जब में बीमार होता था, बुखार या कुछ और होता तो मेरी प्यारी माँ मुझे बिना तेज़ मसालों की, बिलकुल फीकी सी लौकी की सब्जी, रोटी के साथ खिलाया करती। कभी कभी फीका कद्दू या तुरई भी। इसका असर कुछ ऐसा हुआ की वक़्त के साथ मुझे सब्जियां मुझे बीमारू सी लगने लगी। शाम भर खेलने के बाद घर में घुसते ही यदि यह पता लग जाए की रात के खाने में कद्दू-लौकी बने है तो भैया हम मुंह बना लिया करते थे। कुलमिलाकर मुझे इन सब्जियों से नफरत सी हो गयी थी।
शायद ये नफ़रत उम्र भर की दुश्मनी में बदल जाती यदि पिछले साल में गोवर्धन (मथुरा) ना गया होता। माँ की इच्छा पर हम गोवर्धन चल दिए, वैसे तो पूरा भारत ही अपने लजीज खाने के लिए जाना जाता है पर बृज भूमि के स्वाद का तो क्या कहना, मथुरा के प्रसिद्ध पेड़े से लेकर शुद्ध देसी घी की इमरती ने एक ओर जहां मेरे मुंह में मिठास घोल दी, वही कुल्हड़ वाली मखनिया लस्सी पी कर आत्मा तृप्त हो गयी। इतनी मीठा दबाने के बाद जब हमारी नज़र देसी घी में तली जा रही कचोरियों पर पड़ी तो खा-खा कर जवाब दे गए पेट में भी थोड़ी जगह बन ही गयी। इन कचोरियों को वहां की स्थानीय भाषा में बेडही भी कहा जाता है। हमे कचोरी आलू की गीली और कद्दू की सूखी सब्जी के साथ दी गयी। आलू की सब्जी तो बहुत खायी थी पर कद्दू को इतना लजीज कभी ना पाया था। जिंदगी में पहली बार नफ़रत प्यार में बदल गयी, हम उस कद्दू की सब्जी के चक्कर में 3 कचोरियाँ खा गए। मानो अमृत चख रहे हो।
बस ऐसा ही होता हैं, बचपन से हमे कुछ परोसा जाता है, एक विचार के रूप में, फिर धीरे-धीरे वही विचार हमारी सोच में तब्दील हो जाता है और फिर वही सोच हमारे सत्य में। कभी किसी हिन्दू के परिवार में मुस्लिमों से यारी दोस्ती ना करने की सीख दी गयी तो कभी किसी मुस्लिम के घर हिन्दुओं के खिलाफ ज़हर उगला गया। गीली मिटटी को जिसने जैसे चाहा ढाल दिया। एक पीड़ी का ज़हर दूसरी में चला गया, बस यही था विरासत में देने को।
पर हम तो आधुनिक विचारों से लबरेज़ होने का दावा ठोका करते थे, फिर आखिर कैसे उन ढोंगियों के बातों में आ गये। विज्ञान के युग में बिना प्रैक्टिकल किये किसी लफंदर की थ्योरी को सही मान बैठे। अमां छोडिये अक्ल में पत्थर पड़े हैं हमारी, भाषण बाजी से कुछ ना होगा। हाँ बस एक बार जरा उधर भी नज़र डाल लीजियेगा, इंसां ही बसते है वहां पर भी, हमारे आपके जैसे और वैसे भी जब तक दूसरी जगह के कद्दू का स्वाद ना चखोगे तब तक नफ़रत ख़त्म ना होगी।

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